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________________ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद [ ८७ से (पान्थान्) पथिकों को (मोहयन्तिस्म) मुग्ध कर लेती थीं । (अन्यासु) वहाँ अन्य उच्च कुलीन रमणियों को (का काथा) कथा ही क्या । सरलार्भ-उस अवन्ति देश में कृषक ललनाएं भी अद्वितीय सम्पन्न थीं जिस समय वे अपने धान्य के पके हुए खेतों को रक्षा या काटने आदि कार्यों में संलग्न रहती थीं उस समय उनके रूप लावण्य से आकर्षित हो पथिक जन आश्चर्य चकित हो जाते, क्षण भर को गमन रोक उन्हे देखने लगते । जहाँ गोपिकाएँ इतने सुन्दर रूप लावण्य से मण्डित हैं तो अन्य कुलीन महिलाओं की राशि की 'मला क्या क्रया करना अभिवाय यह कि वहाँ को समस्त नारियाँ सर्वाङ्ग सुन्दरियां थीं । कोई भी भद्दी या विकलाङ्ग नहीं थीं ।।६।। यत्र पुण्य प्रसादेन संवसन्तिस्म सज्जनाः । सम्पदा सार सम्पूर्णा जिनधर्म परायणाः ॥१०॥ अन्वयार्थ—(यत्र जहाँ पर (पुण्प प्रसादेन) पुष्प के निमित्त से (सम्पदा सार सम्पूर्णा) सारभूत सम्पदा से सम्पन्न (जिनधर्म परायणः) जिनधर्म के सेवन करने वाले (सज्जनाः) सत्पुरुष संवसन्तिस्म) निवास करते थे । सरलार्थ -वह देश धर्ममान्य था । वहाँ सभी जिनधर्म पालन करने वाले थे। जिन भक्ति में लीन सम्यग्दृष्टि थे, पुण्य-योग्य सभी सम्पदाओं के भोक्ता, पुण्यानुबन्धी पुण्य सम्पादन करने वाले थे। अपने-अपने पुण्योदय से नाना प्रकार के सुखों को भोगने थे । नार्योयत्र जगत्सार रूप सौभाग्यमण्डिताः। सम्यक्त्ववत संम्पन्ना जयन्तिस्म सुराङ्गनाः ॥११॥ अन्वयार्थ—(बत्र) जिस अवन्ति देश में (नार्या:) नारियाँ (जगत्सार) विश्व के साररूप (रूप सौभाग्य मण्डिताः) सौन्दर्य मौभाग्य से विभूषिता (सम्यक्त्ववत) सम्यग्दर्शन प्रतों से (सम्पन्ना) सहिता (सुराङ्गनाः) मुराङ्गनाओं को (जयन्तिरम:) जीतली थीं। सरलार्थ-- उस धर्म स्वरूप अवन्ति देश में पूण्य की खान स्वरूप शील-माचार सम्पन्न गृहणियां थीं । वे अपने रूप सौभाग्य एवं सम्यक्त्व गुण एवं व्रतों से देवाङ्गनाओं को भी परास्त तिरस्कृत करती थीं । अर्थात् बे प्रत्यक्ष अप्सराओं से भी अधिक रूप लावण्यमयी थीं । तथा वस्त्राभरण संयुक्तास्तास्सु-पुत्र फलान्विताः । शोभन्तेस्म यथा कल्पवल्लयः सुमनोहराः ॥१२॥ अन्वयार्थ --- (ताः) वे महिलाएँ (वस्त्राभरण संयुक्ता) वस्त्र और आभूषणों से सजीधजी (सुपुत्र फलान्विता:) श्रेष्ठ पुण्यवन्त पुत्र रूपी फलों से फलित (कल्पवल्लयः) कल्पलताओं सदृश (सुमनोहरः) मन को हरण करने वाली (शोभन्तेस्म) शोभायमान होती थीं।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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