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[श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद भावार्थ-उस देण की नारियों साज शृगार युत नवीन रङ्ग विरङ्गं बस्त्र एवं नाना रत्नों से जटित प्राभूषण धारण किये हुए थीं। उनके सौभाग्य और पुण्य से मण्डित गुण विद्या कला सम्पन्न पुत्र थे । मानों वे पुष्प और फल ही थे । इस प्रकार वे चलती-फिरतो-पल्लवितपुष्पित कल्पलता के समान प्रतिभाषित हो रही थीं ।।१२।।
मार्गेषु यत्र सर्वत्र सुपुष्पफल संयुताः ।
सर्व संर्पिनोरेजुः पादपास्सज्जना-यथा ॥१३॥ अन्वयार्थ --(यत्र) जहाँ (मार्गेषु) मागों में (सर्वत्र) हर एक जगह (सर्व) सबको (संताना संतुष्ट करने वाले ( ला ताः गुस्वादु पक्व फलों से भरे हुए (पादपाः) वृक्ष समूह (यथा) जिस प्रकार (सज्जनाः) सत्पुक्षर हों ऐसे (रेजुः) शोभित थे ।
भावार्थ-वहाँ सज्जन पुरुष यथेच्छ दान करते थे । सर्व याचकों को संतुष्ट करने बाले थे। सभी को आनन्द के कर्ता और संतोष के प्रदाता थे । इसी प्रकार प्रत्येक मार्ग-रोड पर दोनों ओर हरे-भरे फल फूलों से लदे वृक्ष समूह थे । मार्ग श्रम से श्रमित पथिकों को सुपक्व मधुर शीतल फल प्रदान कर संतुष्ट करने वाले के वृक्ष भी सजनों के समान ही उदार और निस्पृही परोपकारी थे ॥१३॥
इक्षुवाटेषु यत्रौच्चैर्वसन्तिस्म मनोहरम् ।
सौरस्यं सूचयन्तिस्प तद्यन्त्राणीव देशजम् ॥१४॥
अन्वयार्थ (यत्र) जहाँ (उच्चैः) बहुत से विशाल (यंत्राणि) यन्त्र इक्षुरस निकालने वाली मशीन (वमन्तिस्म) निवास करते थे अर्थात् लगे थे। (देशजम) वे उस देश में उत्पन्न (इक्षु सौरस्यं) इक्षु गन्नों के मधुर रस की सूचना (इत्र) के समान (सूचन्तिस्म) सूचना दे रहे हैं।
भावार्थ - उस देश में रास्तों, गलियों, सड़कों पर सर्वत्र ईखरस के यन्त्र लगे हये थे । वे मानों मधुर रस के साथ उस देश में उत्पन्न जनों के मधुर-स्नेह भरे व्यवहार की सूचना दे
वनादौ यत्र भान्तिस्म प्रोत्तमश्च नगे नगे। जिनेन्द्र प्रतिमोपेताः प्रसादा शर्म दायिनः ।।१५।।
अन्वयार्थ-(यत्र) जहाँ (वनादी) वन प्रदेशों में (नगे नगे) प्रत्येक पर्वत पर (जिनेन्द्र प्रतिमो पेताः) जिनेन्द्र भगवान् को प्रतिमाओं से सहित (च) और (प्रोत्तुङ्गः) विशाल ऊँचे (शर्मदायिनः) शान्ति प्रदान करने वाले (प्रासादा:) जिनालय (भान्तिस्म) शोभायमान हो रहे थे ।