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धीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद]
भावार्थ-उस देश में स्थित वन प्रदेशों में यत्र तत्र रमणीक पहाडियाँ थीं। उन पर्वत श्रेणियों पर विशाल गगनचुम्बी जिनालय थे। शिखर ध्वजादि से सज्जित उन मन्दिरों में वीतराग छवियुत मनोज़ जिन बिम्ब-प्रतिमाएँ अतिशयरूप से शोभित हो रहीं थीं वे जिन भवन शान्ति के निकेतन थे । आनन्द प्रदाता और संतापहर्ता थे। उनके दर्शन मात्र से भवभव के पातक नष्ट हो जाते थे ।
स्वर्णकुम्भध्वजावात नावादित्र मङ्गलः ।
कूर्जयन्तिस्म देवास्ते जिनेन्द्र स्नपनेरताः ॥१६॥ अन्वयार्थ-उन जिन भवनों में (देवाः) देव-देवियाँ (स्वात्रुम्भध्वजात्रातः) सुवर्ण के कलशों नाना ध्वजारो के समूह (नानावादित्र मङ्गलैः) नाना प्रकार के बाजे और मंगल गानों द्वारा (जिनेन्द्रस्नपनेरताः) जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं का अभिषेक करने में तल्लीन (ते) बे देवगण (कूजयन्तिस्म) कल-कल नाद कर रहे थे - सुरोलेस्वर में कूज रहे थे । .
भावार्थ-वहाँ जिनालयों में देव-देवियाँ विशाल रमणीय सुवर्ण के कुम्भ लेकर ध्वजा-पताकाएँ फहराते हुए तरह-तरह के वाजे-ताल, मृदंग वांसुरी, ढोलक, तबला, हारमोनियम आदि बजाते हुए, नत्य करते, अनेक प्रकार के मङ्गल गानों द्वारा उत्सव करते हुए श्री जिन भगवान् की प्रतिमाओं का अभिषेक करते थे । जिससे वे जिनालय क्रूज रहे थे । कोकिलानाद समान मधुर ध्वनि से वे जिन मन्दिर गुजायमान हो रहे थे ।
ईतयोयनपुण्येन नैवजाताः कदाचनः ।
सर्वेऽपि धर्मिणो यस्मात् परोपकृतिः तत्पराः ॥१७॥
अन्वयार्थ--(यत्र) जहाँ-उस देश में (सर्वे) सभी जनता (अपि) भी (मिण:) धर्मात्मा [परोपकृति पर का उपकार करने में [तत्पराः] तैयार थी [यस्मात् ] इसी कारण से [पुण्येन] उनके पुण्य से [कदाचन] कभी भी [ईतयः] सात प्रकार की ईतियाँ नंब] नहीं ही [जाता:] होती थी।
भावार्थ--पुण्य, सुख सम्पदा का हेतु है । उस देश में सर्वत्र धर्म की वर्षा होती थी। नर-नारी सभी धर्मात्मा थे । दान, पूजा, और परोपकार में सदा तत्पर रहते थे । निरन्तर पुण्य सञ्चय करने वाले थे इसीलिए उनके पुण्य से उस देश में कभी भी सात प्रकार की ईतियाँ नहीं होती थी । वे ईतियाँ निम्न प्रकार है ।
अतिवृष्टिरनावृष्टि मूषिकाश्शलभाश्शुकाः।
स्वचक्र परचक्रञ्च सप्तैनाईतयः स्मृताः ॥१८॥ अर्थ -- (१) अतिवृष्टि --अावश्यकता से अधिक वर्षा होना।