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[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद बन्धी पुण्य के महात्म्य से भव्यजन जहाँ भी जाते हैं. जिस भी अवस्था में रहते हैं उन्हें भुवनादिक सभी वस्तुएं अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं ।। ६३ ।।
एवं स्वपुणणाकेन स भोपालो गटोशलः । राजपुत्रों समासाद्य भुजन् भोगान्सुखं स्थितः॥६४।। कुर्वन् धर्म जिनेन्द्राणां दानं पूजावतादिकम् ।
यावत्तावत्प्रवक्ष्यामि संजातं तत्र सागरे ॥६५।। • अन्वयार्थ—(एवं) इस प्रकार (गुणोञ्चलः) निर्मल, पवित्र गुणशाली (सः) वह (श्रीपाल:) कोटिभट श्रीपान (स्वपुण्यपाकेन) अपने पुण्योदय से (राजपुत्रीम् ) राज कन्या को (समासाद्य) पत्नीरूप में प्राप्तकर (भोगान्) इन्द्रियजन्य भोगों को (भुजन्) भोगता हमा (जिनेन्द्राणाम् ) जिनभगवान द्वारा निरूपित्त (दानपूजावतादिकम्) दान, पूजा व्रत, जप, तप आदि (धर्मम्) धर्म को (कुर्वन्) पालन करता हुआ (यावत्) जबकि (मुखम् ) सुखपूर्वक (स्थित:) रहने लगा (तावत्) तब (तत्र) वहाँ (सागरे) समुद्र में (सञ्जातम् ) जो कुछ हुअा उसे अब (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा।
भावार्थ--सांसारिक विकास, पारिवारिक जीवन का सार सुलक्षणा नारी है। कोटिभट महाराज श्रीपाल ने अपने महान पुण्य से उत्तम राजपुत्री से विवाह किया। साथ अनेकों प्रकार की भोग सामग्री प्राप्त हुयीं । संसार में मानव को साधारणतः तीन वस्तुओं की आवश्यकता होती है पाबास, भोजन और बस्य, ये तीनों ही उसे अनायास प्राप्त हो गये । कन्यारत्न पाकर श्रोपाल महाविवेकी भोगों में आसक्त नहीं हुअा अपितु प्रात्मशुद्धि के साधनभूत जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रशीत दान पूजा, व्रत, नियम, जप, सयमादिरूप धर्म को भी यथाविधि पालन करने लगा। दोनों दम्पत्ति सुखसागर में निमग्न हो रहने लगे। प्राचार्य कहते हैं पुण्य और पाप का फल जीव की यहीं प्राप्त हो जाता है। अब उधर सागर में विचरण करते धवल सेठ के यहाँ यानपात्र में क्या हुअा इसका विवरण करूगा । पाठक ध्यान दें और देखें दुर्जनता का परिणाम और धर्म की महिमा ।।६४ ६५::
समुद्रे पतिते तस्मिन श्रीपाले गुणशालिनि । कश्चित् दुर्जनकः साद्ध स श्रेष्ठीधवलः खलः ॥६६।। पापी मायान्वितस्तत्र कि जातमिति सम्वन् ।
मायया रोदनंचके शिरो धृत्वा च दुर्जनः ॥६७।। अन्वयार्थ-(गुणशालिनि) गुणवान (तस्मिन्) उस (श्रीपाले ) श्रीपाल के (समुद्र) सागर में (पतिते) गिर जाने पर (स) वह (खल:) दुष्ट (धवलः) धवल (श्रेष्ठी) सेठ (कश्चित्) कुछ (दुर्जनः) दुर्जनों के (सार्द्धम् ) साथ (मायान्वितः) मायाचारी (पापी)