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________________ श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ २६३ पालकी (तत्र) वहाँ (कि) क्या (जातम्) हुआ (इति) इस प्रकार (संय वन्) बार बार बोलता हुआ (च) और (मायचा) मायाचारी से (शिरः) मस्तक (धृत्वा) पकड़ कर (रोदनम्) रोना (चक्र) प्रारम्भ किया। भावार्थ--धूर्त धवल सेठ का दाव अचूक हुअा। उसने जाल रचकर धृता द्वारा उस बेचारे, सरचित्त परोपकारी श्रीपाल को रस्सा कटवा कर गहरे रत्नाकर के मध्य गिरवा दिया । मन ही मन हर्षित था । किन्तु कपटी का मन, बचन, काय की क्रिया भिन्न-भिन्न होती हैं । ऊपरी, मायाचारी से वह दुष्ट धवल नाम से धवल किन्तु भाव से काला "वहाँ क्या हुना क्या हुआ ? कैसे हुआ ? श्रीपाल कहाँ जा पडा ? अब क्या होगा । इत्यादि झूठमूठ चिल्लाता हुप्रा माथा धुनने लगा । शिर पकड कर रोने लगा। मानों वास्तविक दुःख उसे हुआ है । उस गुणज श्रीपाल के प्रति बनावटी कृतज्ञता दिखाने लगा । चारों ओर सर्वत्र जहाजों में कोलाहल मच गया । हाहाकार होने लगा । नाना प्रकार से लोग श्रीपाल का गुनगान करते-करते रोने लगे । हाय हाय कर उठे । कोई वास्तविक रूप में आंसू बहा रहे थे कोई बनावटी दिखावटी। पर रो सभी रहे थे ।।६६ ६७।। अब चारों ओर हा हा कार मच गया। श्रीपाल सागर में जा पड़ा। श्रीपाल कोटिभट गया । इस प्रकार की पीडाकारक ध्वनि मदनमञ्जूषा के कान में पडी। सुनकर उसका क्या हुआ। वह सब वृत्तान्त सुनिये । शील की महिमा, शासन देवी देवताओं का आह्वान, उनका चमत्कार पाठक ध्यान से पढ़ें-- श्रीपालः पतितस्सिन्धौ जनकोलाहलं तदा । श्रुत्वा मदनमञ्जूषा महादुःख भरा हता ॥६॥ विद्युत्पातेन वल्लीव पापत किल मूछिता । सखीभिर्जलसेचाधे रुदन्ती सोस्थिता तदा ॥६६॥ अन्वयार्थ--(तदा) उस समय (सिन्धौ) सागर में (श्रीपालः) कोटिभट श्रीपाल (पतितः) गिर गया इस प्रकार (जनकोलाहलम् ) लोगों के कोलाहल को (श्रुत्वा) सुनकर (हता) पीडित (महादुःख भरा) अत्यन्त दुःख से ब्याकुल (मदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषा (किल) निश्चय ही (विद्य त्पातेन) वज्रपात से (वल्ली इव) लता समान (मूच्छिता) वेहोश (पपात) गिर गई (तदा) तब (सखीभि) सखियों द्वारा (जलसंचाद्य :) जल छींटना, पंखाझलना आदि उपायों द्वारा (सा) वह पतिव्रता (रुदन्ती) रोती विलाप करती (उत्थिता) चेतनायुक्त की गई अर्थात् होश में आई । उठकर पुन: विलाप करने लगी। भावार्थ-संसार में शीलवती नारियों का पति ही देवता, रक्षक, पालक, ईश्वर और आराध्य होता है। उसी का दुःख सुख उसका होता है । क्योंकि सौभाग्यमण्डिता महिला ही जगत में मान्य, पूज्य, उत्तम सुखी और सम्पन्न मानी जाती है। पति ही उसकी शोभा है ।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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