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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद]] (सेवकात्) अपने सेवक से (श्रुत्वा) सुनकर (अहम ) मैं (सुधोः) हे बुद्धिशालिन (त्वाम् ) आपको (दृटुम ) देखने के लिए (अत्र) यहाँ (इरित:) आने को प्रेरित हुआ हूँ।
मावार्थ - राजा कहता है, आज हमारे महान् पुण्य योग से प्राप यहाँ पधारे हैं । यह समाचार मुझे प्राप्त हुआ। जिस दिन मुनिराज की भविष्यवाणी हुयी उसी दिन से मैंने यहाँ द्वार पर सेवक नियुक्त कर दिये थे, कि “जो महापुरुष इन सुदृढ दोनों किवाडों को खोले, उसी समय तुम मेरे पास प्राकर यह शुभ समाचार दे देना।" तदनुसार अपने सेवक से यह मङ्गलमय समाचार ज्ञात कर आपके दर्शनों को दौडकर पाया हूँ। आपको देखकर मुझे अपार हर्ष है । मैं शुभ पुण्याधिकारी हूँ ऐसा मानता हूँ । हे बुद्धिमन् आपको पाकर मुझे परमानन्द हुपा है ।।१४६॥
अतो मन्दिरमागत्य मदीयं पुण्यपावनम् ।
परिणय सुतां मे त्वं सत्यं कुरु मुनेर्वचः ॥१५०॥ मार्थ- (.) इसलिए (म्) आप (पुण्यपावनम्) पवित्रपुण्य रूप (मदीयं) मेरे (मन्दिरम्) घर को (आगत्य) पाकर (मे) मेरी (सुताम )पुत्री को (परिणय) विवाहो, तथा (मुनेः) गुरुवचन को (सत्यम ) सत्य (कुरु) करो।
भावार्थ विद्याधर भुपति ने श्रीपाल से प्रार्थना की "हे महानुभाव मेरे घर में पधारिये । परमपवित्र मेरा मन आपके योग्य है । कृपाकर मेरी मुरूपा गुणवती कन्या को वरण करिये । आपके इस कार्य से मुनिराज के वचन सत्य प्रमाणित होंगे । अतः पाप मेरे साथ पधार कर मुनिराज की भविष्यवाणी को सत्य करें ।।१५०।।
इत्याकर्ण्यवचस्तस्य विनयेन समन्वितम् । ..
श्रीपालस्तु जगादोच्चैरेवमस्तु तदा मुदा ।।१५१३॥ अन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार (विनयेन) नम्रतापूर्ण विनय से (समन्वितम्) युक्त (तस्य) उस राजा के (वचः) बचा (आकर्ण्य) सुनकर (श्रीपाल:) श्रीपाल कोटि भट (तु) निश्चय से (तदा) तब (मुदा) हर्षित हो (उच्चैः) स्वाभिमान से (जगादः) बोला (एवम् इसी प्रकार (अस्तु) हो । अर्थात् चलता हूँ।
भावार्थ--उस नराधिप के विनय से संयुक्त वचनों को सुनकर श्रीपाल कोटिभट ने भी स्वीकृति रूप में कहा “ऐसा ही हो" अर्थात् मैं आपके साथ चलता हूँ । आपकी इच्छा पूर्ण करूंगा ।।१५।।
ततो विद्याधरो राजा सन्तुष्टो मानसे तराम् । श्रीपालं गृह्मानीय गुणरत्नविभूषितम् ।।१५२।।