________________
२६२]
[श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद शुभे लाने दिने रम्ये महोत्सवशतैरपि ।
विवाह विधिना तस्मै श्रीपालाय सुतां ददौ ।।१५३॥
अन्वयार्थ (ततो) तब (तराम् ) अत्यन्त (मानसे) मन में (सन्तुष्टः) सन्तुष्ट हुए (विद्याधरराजा) विद्याधर भूपाल ने (गुणरत्नविभूषितम्) गुणरूपोरनों से विभूषित (श्रीपालम् ) श्रीपाल कोटीभट को (गृहम् ) घर (आनीय) लाकर (शुभे) शुभ (लग्ने) लग्न में (रम्ये) शोभनीय (दिने) दिन में (शतैः) सैंकड़ों (महोत्सवः) महा उत्सवों के (अपि) भी द्वारा (विवाहविधिना) विवाह की समस्त विधि सहित (तस्मै) उस (श्रोपालाय) श्रीपाल के लिए (सुताम् ) अपनी कन्या को (ददी) प्रदान किया।
।।।
AN
.
भावार्थ ...कोहिम श्रीपाल को स्वीकृति पाकर उसे अत्यन्त हर्ष हुआ। प्रानन्दाभिभूत हो उस गुरणरूपीरत्नों के सागरश्रीपाल को अपने घर में प्रवेश कराया। हर प्रकार से उसकी पाहुनगति को। सत्कार-पुरस्कार कर अपने को धन्य माना ठीक ही संसार में कन्या के युवती होने पर माता-पिता को जो आकुलता होती है वह भुक्तभोगी ही समझ सकता है। उसका रक्षण करते हुए योग्य अनुकूल वर की खोज करना उन्हें कठिन हो जाता है। ग्राज के युग में तो यह समस्या इतनी जटिल हो गई है कि वेचारे मातापिता ही नहीं सारा परिवार ही चिन्ताग्रस्त हो जाता है । इस परिस्थिति में स्वयं घर बैठे योग्य बर मा जाने पर कन्या को तातमात, स्वजनों को हर्षातिरेक होना स्वाभा
विक ही है। अस्तु, विद्याधर नरेश्वर ने शीघ्र ज्योतिषियों को बुलाकर मुहर्त निकालने की आज्ञा दी। तदनुसार उत्तम लग्न, श्रेष्ठ दिन और पावन घड़ी में सैकड़ों नत्य, गीत, वादित्र, संगीतादि उत्सवों के साथ-विपुल वैभव पुर्वक अपनी सर्वाङ्ग सुन्दरी कन्यारत्न का, अशेष विवाह संस्कार विधि पूर्वक श्रीपाल के साथ कर दिया । यह पाणिग्रहण संस्कार आज के युवकों को महत्वपुर्ण प्रेरणा देता है । इस समय कोटिभट श्रीपाल के पास तन पर वस्त्र छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं था । बर्बर राजाओं से प्राप्त सम्पदा को भी वहीं वितरण कर दिया था । इस अवस्था में भी राजकन्या के पिता से कोई प्रकार की "वरदक्षिणा" की याचना नहीं की। दहेज नहीं मांगा । उसे अपने वल पुरुषार्थ और भाग्य पर अटल विश्वास था । वह जानता था कि संसार में किसी से किसी भी प्रकार
-
-