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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
सामान्यार्थ—जिस प्रकार मार्ग में जाने वाले राहगीरों को वृक्ष की छाया ठहरने में सहकारी होती है किन्तु उन्हें बुलाकर नहीं ठहराती उसी प्रकार जो जीव और पुदगलों को उदासीन भाव से ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं ।।१४४।।
भावार्थ-धर्म द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त है यह जीव पद्गलों को ठहरने में निमित्त कारण है परन्तु उन्हें प्रेरणा देकर नहीं ठहराता वे ठहरते हैं तो सहाय कर देता है । जिस प्रकार गर्मी से पीडित पथिकों को वृक्ष की छाया बुलाती नहीं हैं पर वे आकर बैठते हैं तो उनकी मदद-सहाय कर देती है । अत: उदासीन रूप से जो जीव पुद्गल को ठहरने में सहायता करता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं । अधर्म और धर्म द्रव्य ये दोनों ही तिल में तेल की भांति सर्वलोक में व्यापकर रहते हैं परन्तु अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।
कालाणवोमताः नित्यं नवजीर्णस्यकारकाः। रत्नराशिरिव प्रौच्चैः पृथक् भूता जगत्त्रये ॥१४॥
अन्वयार्थ---(नवजीर्गस्य) नवीन पुराने के (कारकाः) करने वाले (कालाणवः) काल द्रव्य के प्रण (मता:) माने जाते हैं (जगत्त्रये) तीनों लोकों में ये (पृथक भूताः) अलगअलग (रत्नराशिः) रत्नों की राशि के (इव) समान (शोच्चः) कहे गये हैं।
अर्थ-समस्त लोक में समस्त पदार्थो में नये और पुराने का ज्ञान कराने वाले कालाणु भरे हैं । ये कालागु पृथक्-पृथक-अलग-अलग हैं । रत्न राशि समान हैं, उसी प्रकार काल एक है परन्तु कालाण असंख्यात हैं ।
भावार्थ- छहों द्रव्यों के परिणमन में जो सहायता देता है उसे काल द्रव्य कहते हैं। इसके अण असंख्यात हैं। जिस प्रकार कुम्हार के चाक को घुमाने में उसकी मध्य की कोली सहायक होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य समस्त द्रव्य और पर्यायें इसी काल त्र्य के निमित्त से ही परिणमित होती हैं, निश्चय से प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से स्वतः परिगमन करते हैं तो भी कालद्रव्य उदासीन रूप से उन्हें परिणमाने में सहायक होता है । निश्चय और व्यवहार के भेद से कालद्रव्य दो प्रकार का है।
प्राकाशोप्यवकाशस्य दाता तेषां प्रकीतितः । स्व स्वभावेन पञ्चानां जीवादीनां निरन्तरम् ॥१४६॥
अन्वयार्थ (तेषां ) उन (पञ्चाना) पाँचों (जीवादीनां)जीवादि द्रव्यों को (स्व-स्वभावेन) अपने स्वभाव से (निरन्तरम् ) सतत (अवकाशस्य) स्थान का (दाता) देने वाला (प्राकामः) आकाश द्रव्य (प्रकोर्तितः) कहा गया है।
अर्थ जीवादि पाँचों द्रव्यों के निवास को जो स्थान देता है, उसे आकाश द्रव्य कहते हैं ॥१४६|| .