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[श्रीपाल चरिज्ञ प्रथम परिच्छेद पट्टन या पत्तन-जिस भूप्रदेश में नाना प्रकार के नवरत्नों की उत्पत्ति होती है उसे पत्तन कहते हैं।
द्रोण -नदियों से परिवृत प्रदेश द्रोग कहलाता है । संवाहन-उपसमुद्रों के तट पर बसने वाले ग्रामों को संवाह या संवाहन कहते हैं ।
दुर्गाटवी -पहाड़ों पर बसने वाले ग्रामों को दुर्गाटवी कहते हैं। वह मगधदेश इन सभी से व्याप्त था । अर्थात् कहीं भोले सरल स्वभावो निर्मल बुद्धि ग्रामीण जन कृषि कर्म द्वारा अपना सुखी जीवनयापन करते थे, कहीं पर्वत वासी प्रजा “सादा जीवन उच्च विचार" कहावत को चरितार्थ करती थी। कहीं रत्नों के व्यापारी इस देश की अतुल विभूति का प्रदर्शन कर भोगभूमि को चुनौति देते थे । नाति उच्च पर्वत श्रेणियों पर निवास करने वाले अपने प्रसादों से अलकापुरी को भो जोतते थे। सुमधुर पय पूरित सरितायें अपने संगीतमय कर्ण प्रिय कल-कल निनाद से मानों इस देश के सुख सौभाग्य का मङ्गलगान ही कर रही थीं। सर्वत्र सुख शान्ति का वातावरण था । नर-नारियां कुटिलता रहित, धर्मध्यान परायण परस्पर ईा द्वष भाव रहित थे। सर्वत्र जयनाद मजता रहता था। यत्र तत्र सर्वथा भोग मनि आर्यिकावद विचरण कर संसार शरीर भोगों को असारता का दिग्दर्शन कराकर भव्य जीवों को सन्मार्ग प्रदर्शन करते थे । कोई भी निर्गल प्रवृत्ति आचरण नहीं करता था। इस प्रकार यह देश विश्व का अद्वितीय आदर्श था जो अपनी कला, कौशल, दाक्षिण्य और वैभव से चक्रवर्ती सहश निरंकुश, निरावाध शत्रु विहीन निर्द्वन्द्व प्रतीत होता था। वहाँ के लोग प्राय: रोग शोकादि से विमुक्त थे। सभी अपने अपने कर्तव्यों में निष्ठ चारों पुरुषार्थों में समान रूप से प्रवृत्ति कर मानवोचित सुख सम्पदा का उपभोग करते थे। यहाँ के वनोद्यान आदि अद्वितीय सुषमा से परिव्याप्त हो भोगियों के चञ्चल मन को डांवाडोल करने वाले थे। सर्वत्र मधुर सुपक्वफलादि सुलभता से उपलब्ध होते थे । वस्तुतः यह चक्रवर्ती समान ही अनोखा देश था । नदियों को छोड़कर अन्यत्र कुटिलता नहीं थी।। ३५ ।।
नानाकारै विभातिस्म यो देशस्संपदा शतैः।
भन्यानां पुण्यपाकेन निवेशो वा जगच्छियः ॥ ३६ ।। अन्वयार्थ (यो देशः) जो देश अर्थात् वह मगध नामक देश (नानाकारैः शत:) नाना प्रकार के सैकड़ों आकारों वाली (सम्पदां शतैः) सैकड़ों सम्पदाओं के द्वारा (विभालिस्म) सुशोभित होता था। (वा) मानो (भव्यानां) भव्य जीवों के (पुण्यपाकेन) पुण्य के फलने से (जगच्छ्रियः) जगत् श्री का, संसार विभुति का (निवेशो) मूर्ति रूप आकार था ।। ३६ ।।
भावार्य-वह मगध देश सर्वप्रकार की सुख सामग्री से सम्पन्न था । पञ्चेन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति सुलभता से हो जाती थी । ऐसा प्रतीत होता था मानों वहाँ के भव्य जीवों का पुण्यकर्म मूर्तिमान होकर ही फल रहा है, क्योंकि “भाग्यं फलति सर्वत्र" कहावत यहाँ प्रत्यक्ष प्रचलित थी ।। ३६॥