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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
यत्रमार्गेषु सत्तङ्गास्सफलास्सर्वपादपाः ।
सच्छायापिणो नित्यं पान्थानां सज्जना यथा ॥३७॥
अन्वयार्थ--(यत्र) जहाँ अर्थात् उस मगध देश के (मार्गेष) मार्गो में (सत्तुङ्गा) विशाल, ऊँचे (सफलाः) सुस्वादु मधुर फलों से भरे हुए (नित्य) सतत (पान्थानां) पथिकों को (यथा) जिस प्रकार (सज्जनाः) सत्पुरूष तृप्ति संतोष देने वाले होते हैं उसी प्रकार (सच्छायातर्पिणो) उत्तम सघन छाया से सन्तुष्ट करने वाले (पादपाः) वृक्ष थे।
भावार्थ -- उस मगध देश के मार्गों में दोनों तरफ सुन्दर फल फूलों से भरे हुए सघन वृक्ष थे जो सज्जन पुरुषों के समान पथिकों को छाया प्रदान कर उनके श्रम जन्य थकान को हर कर उन्हें निरन्तः सुम्ही रखते थे !! ३६ !!
मालिकेरात्र खजुरवृक्षास्सप्तच्छदादयः ।
यत्र नित्यं फलन्तिस्म भव्यानां वा मनोरथाः ॥३८॥
अन्वयार्थ -(भव्यानां भनोरथा वा) भव्य जीवों के मनोरथों, अभिलाषानों के सम्गन (यत्र) जहाँ-उस मगध देश में (नालिकराम्र) नारियल, आम (खर्जुरवृक्षाः) खजूर के वृक्ष (सप्तच्छदादय:) सप्तच्छदादि पुष्पपादप (नित्यं फलन्तिस्म) सदा फलीभूतहरे भरे रहते थे।
___ भावार्थ-जिस प्रकार पुण्यात्मा भव्य जीवों को उनकी इष्ट सामग्री अनायास प्राप्त हो जाती है उनकी मनोकाममायें नित्य फलीभूत होती रहती है, उसी प्रकार उस मगध देश के नारियल, पाम, खजूर, सप्तच्छद आदि विविध प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्ष फल फूलों से सदा भरे रहते थे। निरन्तर हरे भरे मनोज्ञ दीखते थे और सबके लिये उपयोगी एवं सुखकर थे । अभिप्राय यह है कि मात्र पुण्य ही जीव को सुख साता देने वाला है । उस मगध देशवासियों के पुण्य से वहाँ अकाल दुष्काल, सुखा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि प्रादि कभी नहीं होते थे । सभी वृक्ष, पेड़, पौधे, ऋतु के अनुसार उत्तम फलों फूलों से भरे हुए भव्य. पुरुषों की सेवा में रत रहते थे ।। ३८ ।।
स्वच्छतोयानि भान्तिस्म यत्र नित्यं जलाशयाः ।
पमान्यिता विशालाश्च ते सतां मानसो यथा ॥३६॥
अन्वयार्थ -- (यथा सतां मानसो) सत्पुरुषों उदार हृदय के समान (विशालाः) विशाल, विस्तृत (पद्यान्वितास्वच्छतोयानि जलाशयाः) कमलपुष्पों से युक्त स्वच्छ जलवाले जलाशय-तालाब (यत्र) जहाँ अर्थात् उस मगध देश में (नित्यं भान्तिस्म) सदा सुशोभित रहते थे।
भावार्थ-सत्पुरुषों का मन विषय विकारों से रहित निर्मल होता है । उसी प्रकार