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________________ १६ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद उस मगध देश के सरोवर-जलाशय अति विस्तृत, निर्मल शीतल मधुर जल से भरे हुए थे। उनमें मनोहर विविध प्रकार के पुण्डरीक, पङ्कज, कमल प्रफुल्लित थे तथा अपनी सुगन्धि से भव्य जनों के मन को अल्लाद उत्पन्न करने में समर्थ थे ।। ३६ ।। यत्र भव्या जिनेन्द्राणां तीर्थयात्रादिकर्मभिः । जतिष्ठाविष्ठानिमाम्यन्ति स शुभम् ॥४०॥ अन्वयार्य – (यत्र) जहाँ (भव्या) भव्यजीव (सदा) निरन्तर (जिनेन्द्रारणा) जिन प्रतिमाओं की (गरिष्टाभिः प्रतिष्ठाभिः) महान पञ्चकल्याण प्रतिष्ठाओं द्वारा (तीर्थयात्रादिकर्मभिः) निर्वाण भूमि आदि तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा, वन्दना आदि के द्वारा (शुभं) पुण्य कर्म को (सञ्चयन्ति) सञ्चित करते हैं ।। भावार्थ -उस मगध देश के श्रावक श्राविका सदैव धार्मिक क्रिया-अनुष्ठानों में संलग्न रहते थे । सभी अपने षट् कर्मों-जिनेन्द्र पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दानादि कार्यों में दत्त चित्त रहते थे । पञ्चामृत अभिषेक कर अष्टद्रव्यों को क्रमश: मन्त्रोंच्चारण करते हुए भावपूर्वक जिन भगवान को बढ़ाना जिनपूजा है । निग्रंन्य दिगम्बर, बीतरागी सच्चे साधुओं, आयिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिकादि की यथा योग्य, यथा शक्ति भक्ति, स्तुति, नमन सेवादि करना गुरुपास्ति है । यहाँ ध्यान रहे कि बाध्य अभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी निम्रन्थ दिगम्बर मुनि ही सद्गुरु कहलाते हैं। परिग्रहधारी कदापि सद्गुरु नहीं हो सकता है। पूर्वापर विरोध रहित, सर्वज्ञ कथित, परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रों का एकाग्रचित्त से त्रियोग शुद्धि पूर्वक विनय सहित अध्ययन करना स्वाध्याय है। पांचों इन्द्रियों और मन को विषयों से विरत करना अर्थात् वश में करना तथा षट् काय के जीवों को रक्षा करना संयम है। आत्म शोधन के लिये व्रत उपवासादि करना तप है । उत्तम मध्यम जयन्य पात्रों को यथा योग्य यथा विधि आहार दान, ज्ञान दान, औषधदान और अभयदान करना, दान कर्म है । दान पात्र को हो किया जाता है । मिथ्याह ष्टियों को देना दयादत्ति है । उस देश के नर नारी धर्मपरायण, अपने अपने कर्तव्य पालन में दक्ष-दत्तचित्त थे। सभी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थों का यथायोग्य सेवन करने वाले थे। इसलिये उनके आधि, व्याधि रोग संताप नहीं होते थे । सर्वजन सर्वत: सुखो और सम्पन्न थे। ठीक ही है धर्म ही एका मात्र जीव का कल्याण करने वाला है ।। ४० ।। बनेऽरण्ये नगेषूच्चयंत्र नित्यं मुनीश्वराः । साधयन्ति सदाचारः सारं स्वर्गापवर्गकम् ॥४१॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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