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श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ]
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जीवादिसप्त तत्त्वानि पुण्यं पापं च तत्फलम् । षद्रव्याणि तथा कालत्रयं प्राह जगद्धितम् ॥ १२० ॥ कर्मणां प्रकृतिश्चापि चतस्त्राऽपिगतिजिनः । पञ्चास्तिकाय भेदोद्यान् जगो लेस्याश्च षड्विधा ॥ १२१ ॥ त्रैलोक्यस्य स्वरूपं च सम्प्रकाश्य स्वभावतः । सम्बोध्य सकलान् भव्यान् साररत्नत्रयोदितान् ॥ १२२ ॥ दीर्घकालञ्च नानाश्च मोहजालं निहत्य सः नानादेशान्विवहरत्योचैस्सुरासुर समचतः ॥ १२३ ॥ दशनज्ञानचारित्रं मोक्षमार्ग सुखास्पदम् । aafer स्व बोधेन पुनश्चान्ते जिनेश्वरः ॥ १२४॥
चतुर्दशगुणस्थानप्रान्ते च समय द्वये । चतुर्थ्येन तथा शुक्ल ध्यानेनैव सुनिश्चलः ।। १२५ ।। श्रघाति कर्मणां पञ्चाशीति प्रकृति सञ्चयम् । हत्वा सम्प्राप्तवान् मोक्षं जरामरण वर्जितम् ॥ १२६॥
अन्वयार्थ - ( जगद्धितम् ) विश्व हितकर ( जीवादिसप्त तत्त्वानि ) जीव आदि मात तत्त्व ( पुण्यम् ) पुण्य (पापम् ) पाप (च) और ( तत्फलम ) पुण्य-पाप का फल ( षड्द्रव्याणि ) ग्रह द्रव्य (तथा) एवं ( कालत्रयम) भूत, वर्तमान, भविष्य तीन काल ( प्राह ) कहे (च) और (कर्मणाम) कर्मों की ( प्रकृतिः) प्रकृतियाँ (अपि) भी ( चतस्रोऽपिगतिः ) चारों गतियाँ भी, तथा (पञ्चास्तिकाय) पाँच अस्तिकाय के ( भेदोघानू ) भेदों का समूह (च) और ( पड्लेश्याः ) छह लेश्याए (जग) वणित की ( स्वभावतः ) स्वयंसिद्ध (त्रैलोक्यस्यस्वरूपम् ) तीन लोक का स्वरूप ( सम्प्रकाश्य ) सम्यक् प्रकार प्रकाशित कर (साररत्नत्रयीदितान् ) उत्तम रत्नत्रययुक्त (सकलान् भव्यान् ) सम्पूर्ण भव्यों को (सम्बोध्य ) सम्बोधित कर ( दीर्घकालम् ) बहुत समय तक ( नानादेशान् ) अनेकों देशों में ( विहरत्य ) बिहार कर (नानामोहजालम ) भों के नानाविध मोह जाल को ( निहत्य) नष्ट कार ( स ) यह ( सुरासुरसमचितः) सुर और असुरों के पूजित (जिनः ) जिनदेव ( स्वबोधेन ) अपने केवल ज्ञान द्वारा ( सुखास्पदं ) सुख के स्थान (दर्शनज्ञानचारित्रं मोक्षमार्गम) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग को ( द्योतयित्वा ) प्रकाशित करके (च ) और (पुनः) फिर ( जिनेश्वरः ) जिन भगवान ने ( चतुर्दशगुणस्थानप्रान्ते) चौदहवे गुणस्थान के अन्त में ( चतुथ्येन ) चौथे ( शुक्लध्यानेन ) शुक्लध्यान द्वारा (एव) ही ( समयद्वये ) ( द्विचरम और चरम इन दो समयों में (अधातिकर्मणाम ) अघातिया कर्मों की 'पञ्चाशीति) पचासी ( प्रकृतिसञ्चयम) प्रकृति समूह को ( हत्वा ) नाश कर (च) श्रीर