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________________ ५५२] | श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद • भावार्थ - परम केवली हो गये श्री श्रीपाल मुनि । केवलज्ञान रूपी तूफानी वायुवेग से चारों निकाय के देवों के ग्रासन कम्पायमान हो गये। सभी सुरासुर देवेन्द्रों ने अपने-अपने अवधिज्ञान से ज्ञात कर लिया कि श्री श्रीपालजी केवल जानी - सर्वज्ञ हो गये हैं । हमें अपने कर्त्तव्य की सूचना के लिए ही यह हमारा आसन चलायमान हुआ है। ज्ञानपवन का यह माहात्म्य है । बस क्या था तत्क्षण सभी देव - देवियों सुधर्मा सभा में आकर समन्वित हो गये । सौधर्मेन्द्र ने जुलुस बढने की आज्ञा घोषित की। स्वयं आगे चला । जलक मारते यथायोग्य मन्त्रकुटी - भव्यजनों का सभामण्डप तैयार हो गया । उनके सिर पर एक छत्र शोभित हुआ । परमोज्वल दिव्य दोनों और दो चंवर दुराये गये । मध्य सिंहासन पर केवलीप्रभु विराजमान हुए । विद्याधर नृपों के साथ देवी देवताओं ने जय-जय ध्वनि करते हुए महाभक्ति और हर्ष से अनेक प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की दृष्टि की। इस प्रकार सुर, नर, इन्द्रों ने उनकी भक्तिभाव से पूजा को। नोट -- सामान्य केवलो का समवशरण नहीं होता, तोन छत्र और चौसठ चँवर नहीं होते । ये तीर्थंकर केवली का विशिष्ट बंभव होता है । अतः श्रीपाल जो सामान्य केवली थे इसलिए उनके एक ही छत्र और दो ही चमर थे । गन्धकुटी थी । ( इसमें १२ सभाएँ थीं। सभी अपनो - प्रपनी शक्ति-भक्ति अनुसार पूजा कर घमापदेश श्रवण कर संसार ताप के नाश का उपाय करते हैं ।। ११५ से ११७ ।। घातिकर्म क्षये स्वामी पश्यति स चराचरम् । घनहाये यथा भानुर्भवेत् स्वपर भाषकः ।। ११८।। तदाऽसौ सर्वभव्यानां केवलज्ञान भास्करः । सञ्जगाद द्विधा धर्मं मुनिश्च श्रावकोचितम् ।। ११६।। अन्वयार्थ --- (घातिकर्मक्षये) घातिया कर्मों के क्षय होने पर (सः) वह (स्वामी) श्रीपाल केवली ( चराचरम ) चर और अचर लोक को ( पश्यति) देखता है ( यथा ) जैसे (धनाहाये) बादलों के हटने पर (भानु) सूर्य (स्व-पर भाषक: ) स्वयं को और जगत के पदार्थों का भी प्रकाशक ( भवेत् ) होता है ( तदा) सर्वजता पाने पर (सौ) वह (केवलज्ञानभास्करः ) केवलज्ञानसूर्य ( सर्वभव्यानाम ) सम्पूर्ण भव्यों का हितकारी (धर्म) धर्म को ( मुनिः ) यति (च) और ( श्रावकोचित् ) श्रावक के भेद से ( द्विधा ) दो प्रकार का ( सज्जगाद ) निरूपित किया । भावाथ -- चारों घातिया कर्मों के नाश होने पर सम्पूर्ण चराचर जगत उन्हें प्रतिभाषित हो रहा है । जिस प्रकार सूर्य पर आच्छादित मेघसमूह दूर होने पर वह भास्कर स्व और पर पदार्थों को सम्यक् प्रकार प्रकाशित करता है उसी प्रकार उन केवलीस्वामी ने समस्त विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों को अनन्तपर्यायों सहित एक साथ ज्ञात कर प्रकाशित किया। उन्होंने समस्त भव्यजीवों को द्विविध धर्म का स्वरूप बतलाया । धर्म दो प्रकार है -१. यति या मुनिधर्म और २. श्रावक धर्म । इनका स्वरूप पूर्व परिच्छेद में विशदरूप से वणित हो चुका है । पुनः उनका उपदेश आगे प्रकार हुआ ।। ११६-११६ ।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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