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[ श्रीपाल चरित्र पथम परिच्छेद
भावार्थ- -यह सिद्ध चक्रव्रत भव्य जीवों को चिन्तामरिण कामधेनु और कल्पवृक्ष से भी अधिक उत्तम फल को देता है, क्योंकि ये मात्र सांसारिक विषय भोगों की सामग्री दे सकते हैं, किन्तु सिद्धचक के माहात्म्य से ये तो मानुषङ्गिक रूप से अनायास प्राप्त हो ही जाते है किन्तु इससे भी अधिक अविनाशी अनन्त सुख रूप मुक्ति को भी प्रदान करता है । अतः तीनों लोकों का सारभूत शिरोमणि सर्वोत्तम यह व्रत है । अतः सुखेच्छयों को इस परमोत्तम व्रत को अवश्य ही धारण और पालन करना चाहिये ।। २६ ।।
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इत्यादिकं हृदि ज्ञात्वा प्रभावं भुवनोत्तमम् । सिद्धचक्रव्रतस्योच्चैस्तच्चरित्रं समुच्यते ॥ ३० ॥
अन्वयार्थ -- ( इत्यादिकं ) इत्यादि ( भुवनोत्तमम् ) लोकोत्तम ( प्रभाव ) प्रभाव को ( हृदिज्ञात्वा ) चित्त में जानकर ( सिद्धचकबलस्य ) सिद्धचक्रव्रत को करने वाले ( तच्चरिगं ) उस श्रीपाल का चरित्र (उच्च) सम्यक् प्रकार ( समुच्यते ) कहते हैं ।
भावार्थ - इस श्लोक में सिद्धचक्रवत की लोकोत्तर महिमा का निर्देश करते हुए आचार्य श्री श्रीपाल के उत्तम चारित्र को कहना प्रारम्भ करते हैं
रणवन्तु सुधियो भव्याः जम्बू द्वीपेऽत्र सुन्दरे ।
पवित्र भारते क्षेत्रे जिनजन्म महोत्सवः ॥ ३१ ॥
तत्र देशो महानासीद् विशालो मगधाह्वयः । श्रीमज्जिनेन्द्र सद्धर्म निवेशो भुवनोत्तमः ।। ३२ ।।
अन्वयार्थ - (सुधियो भव्याः ) हे विवेकशील भव्यपुरुषों । (ण्वन्तु) सुने (अत्र सुन्दरे जम्बूद्वीपे ) यहाँ सुन्दर जम्बूद्वीप में ( जिनजन्ममहोत्सवैः ) जिनेन्द्र प्रभु के जन्मोत्सवों से ( पवित्र ) पवित्र ( भारते क्षेत्रे) भरत क्षेत्र में (विशालो) विस्तृत ( महान् ) श्रेष्ठ (श्रीमज्जिनेन्द्र ) श्री जिनेन्द्र प्रभु के ( सदूधर्म) उत्तम धर्म का ( निवेश) श्रालय रूप ( भुवनोत्तम) लोकोत्तम (मगधाह्वयः ) मगध नामक ( देशो प्रासीत् ) देश था ।
भरवार्थ – कथा का प्रारम्भ करते हुए आचार्य श्री लिखते हैं कि इस सुन्दर जम्बूद्वीप में जिनेन्द्र प्रभु के जन्मोत्सवों से पवित्र भरत क्षेत्र में विस्तृत श्रेष्ठ श्री जिनेन्द्र प्रभु के उत्तम धर्म का प्रारूप लोकोत्तम मगध नामक देश था ।
यत्र देशे वनादीनां प्रदेशेषु समन्ततः ।
शोभन्तेस्म ध्वजाद्यैश्च जिनसद्मपरम्पराः ॥ ३३ ॥
प्रन्वयार्थ - - ( यत्रदेशे ) जहाँ अर्थात् जिस मगध देश में ( वनादीनां प्रदेशेषु ) चन प्रान्त के अन्दर ( समन्ततः) चारो ओर बने हुए ( जिनसद्म परम्पराः ) जिन भवनों की पंक्तियाँ ( ध्वजा पत्र ) ध्वजादिकों से ( शोभन्तेस्म ) शोभते I