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श्रीपाल चरित्र पथम परिच्छेद]
[११ (प्रभावतो) प्रभाव से (कुष्ठादि व्याधि) कुष्ठ प्रादि व्याधियों का (सञ्चयः) समूह (विलयं प्रयाति) विनाश को प्राप्त हो जाता है ।
भावार्थ---इस परम पुनीत श्रीपाल चरित्र के सुनने मात्र से भक्तजनों के कुष्ट, लूती, क्षय आदि संक्रामक असाध्य रोग भी क्षण भर में उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे वायु के बेग से गहन बादल निमिष मात्र में बिखर जाते है ।। २६ ।।
निधनाः स्वधनंयस्माद्राज्यभ्रष्टाः स्वराज्यकम् ।
स्थान भ्रष्टाश्च ये स्थान प्राप्नुवन्ति विशेषतः ।। २७ ॥ ( इन्द्रनागेन्द्रचक्रयादि पदं मुक्तिपदं स्थिरम् ।
सिद्धचक्रव्रतेनोच्चैः प्राप्यते नात्र संशयः ।। २८ ॥ युग्मम् ।
अन्वयार्थ-- (सिद्धचक्रवतेन) सिद्धचक्र व्रत के पालन से (निर्धनाः) धन रहित दरिद्धी (उच्चैः) विशेष रूप से (स्वधनं) अपने धन को (राज्यभ्रष्टा) राज्यहीन (स्वराज्यकम् ) अपने राज्य वैभव को (स्थान भ्रष्टाः च) और पदभ्रष्ट हैं वे (विशेषत:) विशेष रूप से (स्थानं ) अपने स्थान को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त कर लेते हैं ।। २७ ।। तथा (पत्र) इस लोक में (न संशयः) संदेह रहित निश्चित रूप से (इन्द्रनागेन्द्र चत्रयादि) इन्द्र, घरणेन्द्र, बलभद्र, बासुदेव, चक्रवर्ती आदि (पदं) पद को तथा (स्थिर) अविनाशी (मुक्तिपदं) मोक्ष पद को (प्राप्यते) पा लेते हैं ।
भावार्थ-श्री सिद्धचक्रमहापूजा विधान का अद्वितीय प्रभाव है। इसके प्रसाद से श्रद्धालु भक्त भव्यजीव अपने नष्ट घन को, राज्यभ्रष्ट पुनः अपने राज्यपद को, स्थान च्युत अपने उस पद को अधिक प्रभुत्व के साथ प्राप्त कर लेते हैं । सिद्ध भगवान की भक्ति सर्व प्रकार सुख शान्ति और आत्मसिद्धि को देने वाली है। यही नहीं विधिवत् प्रतिवर्ष में तीनवार प्राषाढ़ कार्तिक और फाल्गुन मास के अष्टाह्निका पर्व में पूजा अाराधना करने से उभय लोक की सम्पदा प्राप्त होती है। इस लोक में सर्वश्रेष्ठ इन्द्र, चक्री, बलदेव, तीर्थकरादि महान पद प्राप्त होते हैं और सर्व सुख सम्पदा भोग कर अन्त में अविनाशी नित्यनिरञ्जन मुक्तिपद भी प्राप्त होता है ।। 27 ।। २८ ।।
ततो भव्यैर्जगत्सारं संसाराम्बुधिपारदम् ।
सिद्धचक्रवसं पूतं समाराध्यं सुखाथिभिः ।। २६ ॥
अन्वयार्थ (ततो) इसलिये (सुखाथिभिः) सुख की अभिलाषा करने वाले (भव्यैः) भव्य जीवों के द्वारा (जगत्सारं.) तीनों लोकों में सार भूत (संसाराम्बुधिपारदम्) संसार जलधि से पार करने वाले (पूतं) पवित्र (सिद्धचक्रवत) सिद्धचक्रवत को (समाराध्यम् ) सम्यक् प्रकार शुद्ध त्रियोगों से आराधन करना चाहिए।