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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद भावार्थ-समस्त जीवों के प्रति हित को पवित्र भावना से प्रेरित होकर प्राचार्य श्री यहाँ श्रीपाल चरित्र को लिखते हुए यह बता रहे हैं कि यह चरित्र उत्तम औषध के समान है । लौकिक और यात्मिक दोनों प्रकार के सुख को प्रदान करने वाला है ।। २३ ।।
पुन: ग्रन्थ की प्रामाणिकता की सिद्धि के लिये प्राचार्य कहते हैं कि प्राचार्य परम्परा से प्राप्त कथा को ही मैं लिख रहा हूँ यह कोई कल्पित मनगढन्त कथा नहीं है
यत्पुरा चरितं पूर्व सूरिभिः श्रुतसागरः ।
तदहं चापि वक्ष्यामि किमाश्चर्यमतः परम् ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ-(पूर्व) पहले (यत् पुराचरित) जो श्रेष्ठ चरित्र (श्रुतसागर-सूरिभिः) श्रुतसागर आचार्य के द्वारा कहा गया था (तदहं चापि) उसको मैं भी (वक्ष्यामि) कहूँगा (अतः परम) इससे बड़ा (आश्चर्यं किम् ) आश्चर्य क्या हो सकता है ?
भावार्थ-यह धीपाल चरित्र मन गढन्त कपोलकल्पित नहीं है, अपितु पूर्व प्राचार्य परम्परा से प्राप्त श्री श्रुतसागर प्राचार्य के द्वारा कथित यथार्थ और प्रामाणिक है, पवित्र और पाप नाशक है। पुन: प्राचार्य कहते हैं कि मैं अल्प बुद्धिवाला हूँ, मुझमें यद्यपि उस महान् चरित को लिखने की क्षमता नहीं है फिर भी मैंने उस कार्य को करने का जो साहस किया है वह सर्वाधिक आश्चर्यकारी है। इस प्रकार यहाँ प्राचार्य श्री के द्वारा ग्रन्थ की प्रमाणता और अपनी विनम्रता और निरहंकारता भी प्रकट की गई है ।। २४ ।।
यस्य श्रवणमात्रेण चरितेन विशेषतः ।
पापराशि क्षयं याति भास्करेणेव दुस्तमः ।। २५ ॥
अन्वयार्थ- (भास्करेग इव) सूर्य के समान भामुरगय (बस्य चरितेन-श्रवणमाओण) जिस चरित्र को सुननेमात्र से (दुस्तमः) गहरे अन्धकार रूप (पापराशि) पाप समूह (विशेषतः क्षयं याति) विशेषतः अर्थात् पूर्णरूप से नष्ट हो जाता है (शेष वाक्य-ऐसे उस चरित्र को मैं कहूँगा]
भावार्थ--जिस प्रकार सूर्य के द्वारा रात्रि का गहरा अन्धकार भी तत्काल नष्ट कर दिया जाता है उसी प्रकार इस पवित्र चारित्र को सुनने मात्र से पाप समुह क्षय को प्राप्त हो जाता है।
यस्यप्रभावतो ननं कुष्ठादि व्याधिसञ्चयः ।
प्रयाति विलयं सद्यो वायुनावा घनावलिः ॥ २६॥
अन्वयार्थ-(वायुना वा धनावलि) बायु वेग से जैसे मेघमाला (विलयं प्रयाति) निर्मूल नष्ट हो जाती है उसी प्रकार (यस्य) जिसके अर्थात सिद्धचक्र व्रत से युक्त चरित्र के