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________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद [६ कुन्दकुन्द स्वामी, श्री विद्यानन्द स्वामी, श्री मल्लिभूषण और श्रुतसागर आदि प्राचार्यों का स्मरण करते हैं जिससे ग्रन्थ रचना का कार्य निर्विधन समाप्त हो सके ।। २० ।। पञ्चमगति मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा रखते हुए प्राचार्य पुन: गुरुजनों का आशीर्वाद चाहते हुए लिखते हैं - । पञ्चते परमानन्ददायिनः परमेष्ठिनः । सन्तु नः भव्यजीवानां पञ्चमीगति दायकः ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ--(परमानन्ददायिनः) परम् अानन्द को देने वाले (एते) ये (पञ्चपरमेष्ठिनः) पांचों परमेष्ठी (न: भव्यजीवानां) हम भजोत्रों को (पञ्चमगतिदायकाः) पञ्चमगति मोक्ष को देने वाले (सन्तु) हो । भावार्थ-पुनः सामान्य रूप से पञ्चपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि आप सभी निराशुल स्थाई सुख को प्रदान करने वाले हैं आपकी स्तुति करने से मुझे भी वह निराकुल स्थाई सुख प्राप्त होगा तथा श्रेष्ठतम जो पञ्चम मोक्षगति है वह भी परम्परा से प्राप्त हो सकेगी ॥२१॥ ___ अब पवित्र, मुखद, मनोहारी, श्रीपाल चरित्र को लिखने की प्रतिज्ञा करते हुए प्राचार्य कहते हैं ए तेषां शर्म हेतूनां चरणस्तुतिमङ्गलम् । कृत्वाहं तुच्छबुद्ध्यापि श्रीपाल चरितं ब्रुवे ॥ २२ ॥ अन्ययार्य--- शर्म हेतूनां) परमशान्ति कर मोक्ष की प्राप्ति में हेतुभूत (एतेषां) इन पञ्चपरमेष्ठियों के (मङ्गल) मङ्गलमय (चरणस्तुति) चरण स्तुति को (कृत्वा) करके (तुच्छबुद्ध्यापि) तुच्छ बुद्धि वाला होने पर भी (ोपालचरित) श्रीपाल चरित्र को (ब बे) मैं कहता हूँ। भावार्थ--यहाँ पञ्चपरमेष्ठी की स्तुति भक्ति पूर्वक प्राचार्य श्री श्रीपाल चरित्र' को लिखने का संकल्प करते हैं ।। २२॥ चरित्रं सर्वदा सर्वरोग संतापनाशनम् । सिद्धचक्रवतोपेतं सिद्धयौषधिमिवोत्तमम् ॥ २३ ॥ अन्वयार्थ--(सिद्धि औषधिम् इव उत्तमम्) सिद्ध-सफल उत्तम औषध के समान (सिद्ध चक्रवतोपेतम्) सिद्धचक्रवत अर्थात् अष्टाह्निका व्रत है उससे युक्त (चरित्रं) श्रीपाल का यह चरित्र (सर्वदा) सदाकाल (सर्वरोगसंताप-नाशनम् ) सर्वरोग और संताप को नाश करने वाला होवे।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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