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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
[१७७ (पुत्र ! ) हे पुत्र ! (त्व) तुम (शृण ) सुनो (ते) तुम्हें (सर्वसिद्धिप्रदम्) सम्पूर्ण सिद्धियों का देने वाला (सिद्धचक्र पूजा) श्री सिद्धचक्रपूजा (विधानकम्) विधान को (वच्मि) कहता हूँ।
मावार्थ श्री प्राचार्य परमेष्ठी कहने लगे, हे पुत्र ! श्रीपाल अब मैं आपको श्री सिद्धचऋपूजा विधान का स्वरूप बतलाता हूँ। यह विधान सर्व सिद्धियों का करने वाला है। भयङ्कर और असाध्य रोगों की भी रामबाण औषधि है । प्रात्मसिद्धि का विशेष साधन है । आप सावधानी से सुनिये ।।७।। सिद्धचक्र विधान महिमा
येन श्रीसिद्धचक्रस्यपूजनेन जगत्त्रये
रोग शोक सहस्त्रारिग क्षयं यान्ति क्षरणार्द्धतः ।।८०॥ अन्वयार्थ—(येन) जिस (श्रीसिद्धचऋपूजनेन) श्री सिद्धचक्र के पूजने से (जगत्त्रये) तीनों लोकों में (सहस्राणि) हजारों (रोग शोक) रोग व्याधियाँ, आधियाँ (मानसिक पीडाएँ) (क्षरणार्द्धतः) निमिषमात्र में, आधे ही क्षण में (क्षयम्) नष्ट (यान्ति) हो जाती है।
भावार्थ-इस सिद्धचक्र के पूजन से हजारों प्राधि-व्याधि क्षणमात्र ही विलीन हो जाती हैं । सिद्ध समूह की अर्चना कर्मों के कटु विपाक का नाश करने वाली है । पुण्य की वृद्धि करने वाली है ।।५०॥
शत्रयो मित्रतां यान्ति विध्नासर्वे प्रयान्ति च ।
शान्तिस्सम्पद्यते, शीघ्र वह्निश्चापि जलायते ॥१॥ अन्वयार्थ-(च) और (मत्रयः) शत्रु (मित्रता) मित्रता को (यान्ति) प्राप्त हो जाते हैं, (सर्वे) सम्पूर्ण (विध्नाः ) विध्न (प्रयान्ति) नष्ट हो जाते हैं-दूर होते हैं, (शीघ्रम्) जल्दी ही (शान्तिः) शान्तता (सम्पद्यते) प्राप्त होती है (च) और (वह्निः) अग्नि (अपि) भी (जलायते) पानीरूप परिणमित हो जाती है।
भावार्थ--सिद्धचक्र की आराधना करने से श श्रुसमूह मित्रमण्डल बन जाता है, अनेकों विध्नसमूह दूर भाग जाते हैं, शीघ्र ही शान्ति मिलती है यहाँ तक कि अग्नि भी जलरूप हो जाती है ।।१।।
विषं निविषतामेति पशवः पन्नगादयः ।
तेऽपि सर्वेप्रशाम्यन्ति सिद्धचक्रप्रपूजनात् ॥२॥ अन्वयार्थ -- (विषम् ) जहर (निर्विषताम्) बिषरहित (एति) होता है (पन्नगा