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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद दयः) सर्प, सिंह, व्याघ्रादि कर (पशव:) पशुगण हैं (ते) वे (अपि) भी (स.) सर्व (सिद्धचक्रप्रपूजनात्) सिद्धचक्र को सम्यक पूजा करने से (प्रशाम्यन्ति) पूर्ण शान्त हो जाते
भावार्थ---सिद्धचक्रविधान-पूजा से भयङ्कर प्राणघातक जहर भी अमृत समान पोषक हो जाता है । सर्प, सिंह, वराह, व्याघ्र, नकुल अष्टापदादि महाक र हिस्र जीव भी अनापास शान्त हो जाते हैं अर्थात् हिंसाकर्म को छोड़ देते हैं । तथा और भी कहते हैं।।१२।।
डाकिनी शाकिनी चापि भूताः प्रेतादयाः खलाः ।
वैरभावं परित्यज्य सेवां कुर्वन्ति भक्तितः ॥८॥ अन्वयार्थ—यही नहीं (डाकिनी) डाकिनी (शाकिनी) शाकिनी (च) और (भूताः) भूत (खलाः) दुष्ट (प्रतादयः) प्रतादि (वैरभावम्) शत्रुभाव को (परित्यज्य) छोड़कर (भक्तितः) भक्ति से (सेवाम्) (सेवा) (कुर्वन्ति) करते हैं ।
भावार्थ-दुष्ट स्वभाबी अहित करने वाले डाकिनी, शाकिनी भूत, पिशाचादि व्यन्तर देवता अपनी दुष्टता छोड देते हैं । इतना ही नहीं वे वैर भाव छोडकर सेवक बन जाते हैं ।।८।।
पुत्रमित्र कलत्रादि सज्जनाश्चित्तरञ्जनाः । भवन्ति स्नेहिनो नित्यां, सिद्धचक्रप्रसावतः ॥४॥
अन्वयार्थ-(सिद्धिचक्रप्रसादत:) सिद्धचक्र के प्रसाद से (नित्यम् ) नित्य हो (पुत्र) बेटा (मित्र) दोस्त (कलत्रादि) स्त्री, भाई बहिन, काकी ताई आदि सगे सम्बन्धी (चित्तरञ्जनाः) मन को प्रसन्न करने वाले, (स्नेहिनः) प्रीति करने वाले (च) और (सज्जनाः) सज्जन (भवन्ति) हो जाते हैं ।
सार देवेन्द्रचनयावि सम्पदो विविधास्सवा ।
मणि मुक्ताफल प्रायास्संप्राप्यन्त पदे पदे ॥५॥ अन्वयार्थ--सिद्धचक्रपुजा से (पदे पदे) पग-पग पर (देवेन्द्र) इन्द्र (चक्रयादि) चक्रवर्ती आदि की (विविधाः) नाना प्रकार की (सम्पदा) सम्पत्ति (सदा) हमेशा (मणि) मणि (मुक्ताफल) मोती आदि (प्रायः) प्रायः करके (सम्प्राप्यन्ते ) प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ---सिद्धचक्रविधानपूजा से नाना रत्न, हीरा, मोती, इन्द्र की बिभुति, चक्रवर्ती का वैभव आदि नाना प्रकार की विभूतियाँ स्वयमेव आ उपस्थित होती हैं। पग-पग पर सम्पत्ति पीछे-पीछे दौडती है । बिना प्रयत्न के श्रेष्ठ लक्ष्मी आकर वरण करती है ।।५।।