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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
[१७६ अहो राजन्न हो पुत्रि ! यच्छ भं भुवनत्रये ।
तत्सर्व सिद्धचक्रस्य पूजनेन भवेदलम् ॥८६॥
अन्धया-(अहीं है (२ जन् ! ) राजन् (अहो पुत्री ! ) हे पुत्रि! (भुवनत्रये) तीनों लोकों में (यत्) जो (शुभम् ) शुभरूप पदार्थ हैं (तत्) यह (सर्व) सर्व (सिद्धचक्रस्य सिद्धचक्र की (पूजनेन) पूजा से (भवेत्) होता है (अलम्) अधिक क्या कहें ?
भावार्थ--आचार्यदेच स्पष्ट कर रहे हैं हे नपति ! हे मदनसुन्दरी! तीन लोक में जितना भी जो कुछ शुभरूप पदार्थ हैं वे सब सिद्धचक्र पूजा से प्राप्त होते हैं । मोक्ष भी मिलता है अन्य की क्या बात ? ।।६।।
कि सुते बहुनोक्त न सिद्धचक्नविधानतः ।
प्राप्नुवन्तिस्सदाभन्या स्वर्गमोक्षश्रियं ध्वम् ।।८७॥ अन्वयार्थ-(सुते ! ) हे पुत्रि ! (बहुना) अधिक (उक्तेन) कहने से (कि) क्या प्रयोजन ? (सिद्धचक्रविधानतः) सिद्धचक्र पूजा करने से (भव्याः) भन्यजीव (सदा) सदैव (ध्र वम्) निश्चय से (स्वर्ग-मोक्ष श्रियम्) स्वर्ग, मोक्ष को लक्ष्मी को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करते हैं ।
अब सिद्धचक्र बिधान करने की विधि को कहते हैं---
तत्कथंक्रियते चेति विधानं शृण पुत्रिके !
प्राषाढे कार्तिकेमासे फाल्गुने सुमनोहरे ॥८॥ अन्वयार्थ- (पुत्रिके ! ) हे पुत्रि ! (सत्) वह विधान (कथम्) किस प्रकार (क्रियते) किया जाता है (इति) इस क्रिया को (श्रुण ) सुनो, (सुमनोहरे) सुन्दर-शुक्ल पक्ष में (आषाढे, काति के च फाल्गुन) भाषाढ, कार्तिक और फागुन (मासे) महीने में ।।८।।
पदायदा समायाति पर्वनन्दीश्वरं शुभम् ।
तक्षा तथा समारभ्य विधानमिदमुत्तमम् ॥८६॥
अन्वयार्थ-यदा यदा) जब जब (शुभम् ) शुभ (पर्वनन्दीश्वरम् ) नन्दीश्वरपर्व (समायाति) पाता है (तदा-तदा) तब तब (इदम्) यह (उत्तमम्) उत्तम (विधानम्) विधान (समारम्म) प्रारम्भ करके ।।८।।
शुक्लाष्टमी समारभ्य दिनान्यष्टौ जगद्धिते जिनेन्द्रभयने शोभां कृत्वा प्रैलोक्य मोहिनीम् ॥१०॥