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श्रोपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद]
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धर्म वा धर्मात्माओं की, जिन चैत्य-जिन चैत्यालयादि, धर्मायतनों को सुरक्षा के लिये, विरोध कर सकता है । पञ्चेन्द्रिय विषयों का पोषण करने वाले जो कार्य हैं उनके लिये अनुमति नहीं दे सकता है, प्ररणा नहीं दे सकता है अर्थात् करते हुए की अनुमोदना भी नहीं करता है । छेदन, भेदन, मारण, कर्षण, बाणिज्य चोरी आदि कार्य जो हिंसा में प्रवृत्ति कराने वाले कार्य हैं उनके लिये कभी किसी प्रकार अनुमोदना जो नहीं करता है ऐसा जो व्रती श्रावक है, वह अनुमति त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है ॥१२॥
गृहं त्यक्त्वा गुरोः पायें ब्रह्मचारी शुचियती।
भिक्षाचारी सुधीरेक बस्त्रश्चैकादशप्रमाः ॥३॥
अन्वयार्थ--(गृहं त्यक्त्या) घर को छोड़कर (गुरोः पार्वे) गुरु के पास (ब्रह्मचारी शुचित्रती) पवित्र ब्रह्मचर्य, वृत का थारी वृती (भिक्षाचारी) भिक्षा रो भोजन ग्रहण करने बाला (एकत्रमः) एक पल्ट धार करने वाला ऐका एक अधोवस्त्र एक उत्तरीयदुपट्टा रखने वाला क्षुल्लक (एकादशप्रमाः सुधीः) ग्यारह प्रतिमाधारी सुधी-श्रेष्ठ श्रावक है, ऐसा जिनागम में कहा है 1
मावार्थ-घर को छोड़कर गुरु के समीप रहने वाला, पवित्र ब्रह्मचर्य वृत्त को धारण करने वाला, भिक्षा से भोजन ग्रहण करने वाला एक वस्त्र धारण करने वाला ऐलक तथा एक अधोवस्त्र-लंगोट और एक उत्तरीय वस्त्र दुपट्टा रखने वाला क्षुल्लक उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी श्रेष्ठ श्रावक है ऐसा जिनागम में कहा है ।।६३॥ ग्यारह प्रतिमाधारी श्रावक दो प्रकार के होते हैं ऐसा प्रागे बताया भी है -
तस्यमेव द्वयं प्राहुमुनिः स श्रुतसागरः। एक वस्त्रधरः पूर्वो यः कौपीनधरः परः ।।१४।। यः कौपीनधरो भन्यो जिनपाद द्वये रतः । रात्रौ च प्रतिमा योगं सदाधत्ते स्वशक्तितः ।।५।। पिच्छं गहणाति पूतात्मा स भु.क्त चोपविश्य च।
पाणिपात्रेण नोद्दिष्टो भिक्षां स श्रावकालये ॥६६।। अन्वयार्थ - (स श्रुतसागर: मुनिः) उन श्रुतमागर मुनिराज ने (तस्य) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी के (भेमपंदो भेद (प्राहकहे हैं (एकवस्वधर:) एक उत्तरीय वस्त्र-पट्टा और (पर) दुसरा (कौपीन ) लंगोट (धरः) धारण करने वाला जिसे क्षुल्लक कहते है। पुनः (य: कोपोनघगे भव्यो) जो कोपीन-लंगोट मात्र धारण करने वाला भव्य थेष्ठ श्रावक ऐलक है वह (जिनसाद द्वये रतः) जितेन्द्रप्रभु के चरणकमलों में अनुराग रखने वाला (स्वशक्तितः) अपनो शक्ति के अनुसार (रात्री) रात्रि में (प्रतिमायोगं च) प्रतिमायोग भी (धत्ते)