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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद कर दिया आप वीतराग हैं । माप संसार का हित करने वाले हैं । आप दया के सागर हैं । स्वयं बन्धनमुक्त हैं तो भी भव्यों के बन्धु हैं। हे देव आपकी जय हो । आप सदैव जयशील हों ॥५॥
जन्ममृत्युजरातङ्कनाशनक भिषावर ।
जय तेजोनिधे देवलोकालोक प्रकाशकः । अन्वयार्थ हे प्रभो आप (जन्ममृत्युजरातङ्कनाशन) जनम, मरण और बुढापा रूपी रोग का सर्वनाश करने के लिए (एक) एकमात्र (भिषग्वर) वैद्य हैं (तेजोनिधे) तेज के निधान हैं । हे तेज के धाम ! (लोकालोक प्रकाशक!) हे लोक और अलोक के प्रकाश करने वाले (हे देव) हे देव (जय) आपको जय हो । अाप जयवन्त रहें ।।६।।
जय त्वं जिनराजोच्चस्सप्ततत्त्वार्थ दीपक ।
जय सर्वज्ञ संसिद्ध स्वयंसिद्ध विशुद्धिभाक् ॥७॥ अन्वयार्थ (सप्ततत्त्वार्थ दीपक:) सात तत्त्वों के स्वरूप प्रकाशक प्रदीप (जिनराजः) हे जिनेन्द्र प्रभो (त्वं) आप (उच्चैः) विशेष रूप से (जय) जयशील हों, (सर्वज्ञ) हे सर्वज्ञ (संसिद्ध) हे सिद्धोपासक (स्वयंसिद्ध) हे स्वयंबोध (विशुद्धिभात) हे विशुद्धात्मा (जय) आपकी जय हो, जय हो।
भावार्थ हे सर्वज्ञाता ! हे स्वयंबुद्ध; हे स्वयंसिद्ध ! हे विशुद्धि प्राप्त कर्ता ? आप सप्ततत्वों के अर्थ का सम्यक् प्रकाश करने वाले हैं । मापकी जय हो । जय हो ।।७।।
अहो स्वामिन् जिनेन्द्र त्वं शुद्धरत्नत्रयान्वित ।
पोतस्त्वमेव भो देव ! संसाराम्बुधितारणे ॥८॥ अन्वयार्थ ---- (अहो) भी (स्वामिन् ) स्वामिन् (जिनेन्द्र) हे जिनदेव ! (शुद्धरत्नश्रयान्वित !) आप शुद्ध रत्नत्रय सम्पन्न, हे विभो (त्वं) आप (संसाराम्बुधितारणे) संसार सागर से तारणे को (भो देव) हे देव (त्वमेव) आप ही (पोतः) जहाज हो ।
भावार्थ:-हे स्वामिन् ! हे जिनेन्द्र ! आप शुद्धपरमावगाढसम्यग्दर्शन, केवलज्ञान और पूर्णसम्बकचारित्र स्वरूप रत्नत्रय से समन्वित हैं । भव्यजीवों को संसार रूपी सागर से पार करने के लिए आप सुदृद्ध नौका हैं।
इत्यादिकं महाभरत्या स्तुत्वा श्रीमज्जिनेश्वरान् ।
नत्वा पुनपुनर्गाळ परमानन्द दायकान् ॥६॥ अन्वया-(इत्यादिकम्) उपर्युक्त नाना प्रकार से (महाभक्त्या) महानभक्ति से