SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १३३ अन्वयार्थ--(श्रीजिनाधीश! ) हे श्री जिनाधीश ! (सर्वदेवेन्द्रवन्दितः) आप सम्पूर्णइन्द्रों-सौ (१००) इन्द्रों से वन्दनीय हैं (जयत्वम्) जयवन्त हों आप । (अखिल भूतलः) सम्पूर्णभूमितल-तीनलोक (गुणमाणिक्यरन्जितः) आपके गुण रूपी माणिकरत्न से अनुरञ्जित है ऐसे (त्वं ) आप (जय) जयशील हो। भावार्थ--हे श्री जिनाधीश ! आपकी १०० इन्द्र नित्य वन्दना करते हैं । भवनवासियों के ४० इन्द्र, व्यन्तरों के ३२ इन्द्र, कल्पवासियों के २४ इन्द्र, ज्योतिषियों के २ मनुष्यों का १ चक्रवर्ती और तिर्यञ्चों का १ सिंह । इस प्रकार सब ४०+ ३२+२४+२+१+१+ १०० इन्द्र होते हैं । आप अनेक गुणरूपी माणिक्य रत्नों के भण्डार हैं। इन गुण मणियों से तीनों लोक अनुरञ्जित हैं । माणिकरत्न अरुण वर्ण का होता है उससे लाल ही किरणें निकलकर भूमितल को अरुणवर्ण कर देती हैं किन्तु रत्न की प्रभा सीमित होती है, सीमित स्थल को ही लाली से व्याप्त करती है। परन्तु आपके गुण रूपी अनन्त माणिक्यरत्नों की अनन्त प्रभा समस्त भूमण्डल को अभिव्याप्त कर लेती है । अर्थात् आपके गुणों से संसार का प्राणिमात्र आनन्दित होते हैं । तीनों लोक आपकी गुणगरिमा से अनुप्राणित है । हे सर्वेश आपकी गुणगरिमा से अनुप्राणीत हैं । हे सर्वेश आपकी जय हो ।।३।। जय त्वं अव्यसंटोहकमलाकर भास्करः । दुष्टदारिद्रयरोगाग्नि शमनंक घनाघनः ॥४॥ अन्वयार्थ---[ख] आप हे भगवन् [भव्यसंदोहकमलाकरभास्कर:] भव्य-जनसमूहरूपी कमलों के प्राकर को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, [दुष्टदरिद्रता-रोगरूप अग्नि के लिए शमन-शान्त करने के लिए आप महा घनघोर वर्षा करने वाले मेघ हैं) दुष्टदारिद्रयरोगाग्नि) भयंकर दरिद्रता, रोगरूपी अग्नि को (शमनैक) बुझाने के लिए एकमात्र (घनाघनः) महाघनघोर मेघ हैं हे प्रभो (जय) आपकी जय हो। भावार्थ- सूर्योदय से कमलसमुह विकसित हो जाते हैं । सरोवर विहंसने लगता है। उसी प्रकार हे भगवन ! पाप भव्यगुण्डरीकों को विकसित करने वाले ज्ञानरवि हैं । संसारी प्राणियों को दुष्टदरिद्रता, रोगादि अग्निवत जलाते हैं उस दाह से संतप्तप्राणियों को दाहसंताप से रक्षा करने वाले पाप घनघोर मेध हैं । आप को सदा जय हो ।।४।। जय सर्वेश तीर्थेश वीतराग जगद्धित । जय देव क्यासिन्धो भन्यबन्धोऽप्यबंधनः ॥५॥ अन्वयार्थ--(सर्वेश) हे सर्व ईश्वर (वीतरागः) हे वीतरागो (जगद्धितः) हे जगत के हितकर्ता ! (दयासिन्धो) हे कृपासागर (प्रबन्धनः) कर्मबन्ध रहित (अपि) भी आप (भव्यबन्धुः) भव्य जीवों के हितकर्ता बन्धु हैं । (देव) हे देव (जय) आप जयशील हों। मावार्थ -हे प्रभो ! आप प्राणीमात्र के ईश-रक्षक हैं। आपने राग-द्वेष को नष्ट
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy