SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६] [श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद कर्ण्य) सुनकर वह (महीपतिः) भूपति (मूढात्मा) दुष्ट घुद्धि (मानतः) अहंकार से (चित्ते) मन में (कुपिते) कुपित हुआ (सदा) उस समय (चिन्तयत् ) विचारने लगा। भावार्थ--राजा युक्ति भरे पुत्री के वचन सुनकर मूर्खानन्द मन में कुपित हुआ। अहंकार से वह दुष्टात्मा विचार करने लगा ।।६०॥ पश्यपुस्यानाप्रोक्तं प्राधान्य निजकर्मणः । अहं वृथा कृतोगाढं मूढया च महीपतिः ॥६॥ अन्वयार्थ - राजा मन में कहता है कि (पश्य) देखो (अनया) इस (पच्या) पुत्री के द्वारा (निजकर्मणः) अपने भाग्य-कर्मों की (प्राधान्यम् ) प्रधानता (प्रोक्तम् ) कही गयी है (मूढया) इस मूर्खा के द्वारा मैं (महीपती:) राजा (गाढम् वृथाकृत:) अत्यन्त दृथा कर दिया गया अर्थात् तुच्छ समझा गया हूँ। भावार्थ-राजा अहंकार में डूब गया । कर्म सिद्धान्त को भुल गया। कोरे अहंकार में डूबकर मन ही मन में कहता है, देखो इस मूर्ख कन्या को। अपने भाग्य की महत्ता बता रही है । मुझ नृपति ने व्यर्थ ही इतना गाढ श्रम किया । अर्थात् व्यर्थ ही मैंने इसके लिए कितना कष्ट उठाया है ? अच्छा, मैं राजा हूँ। मुझे कुछ नहीं समझती । मात्र भाग्य के गीत गाती है । ।।११।। इसे अवश्य ही-- कस्मंचिद्विश्वनिन्दायदत्त्वेयांपुत्रिकांघ्र वम् । पश्याम्यस्याः स्व पुण्यस्य महात्म्यं चेतिदुष्टधीः ।।२।। अन्वयार्थ----(दुष्टधी:) दुर्बुद्धि (डमां) इस (पुत्रिकाम् ) पुत्री को (घ्र वम् ) निश्चय से (कस्मंचिद्विश्वनिन्दाय) किसी संसार निन्दित पुरुष के लिए (दत्त्वा) देकर (अस्याः) इसके (पुण्यस्य) पुण्य के (माहात्म्य) माहात्म्य को (पश्यामि) देखता हूँ (इति । ऐसा निश्चय किया। भावार्थ--राजा प्रजापाल ने मन ही मन निर्णय किया कि इस दुष्ट बुद्धि पुत्री को किसी विश्वनिन्ध पुरुष को दुगा । फिर देखता है। उस पापी के साथ इसका पुण्य क्या चमस्कार दिखाता है । मैं तो राजा हूँ मेरे यहाँ सब सामग्री है और यह समझती है कि मेरा पुण्य है। कितनो मक्कार है यह लड़की, अवश्य ही इसे किसी निंद्य पुरुष को दे परीक्षा करूगा ।।१२।। चित्तेविचार्यतांमूचेयाहि पुत्रिगृहं तदा । सापिमत्वा पितुश्चितं विनम्रा मन्दिरंययो ॥३॥ अन्वयार्थ इस प्रकार राजा (चित्ते) मन में (विचार्य विचार कर (ताम् ) उस पुत्री से (ऊंचे) बोले (पुत्री) हे बेटी (गृहम् ) घर को (याहि) जानो (तदा) तव (सा) वह
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy