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श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद ]
[४५६ जपादि करता है वह तृतीय प्रतिमाधारी है । तृतीय प्रतिमाधारी को प्रातः मध्याह्न और सायंकाल समस्त विकल्प वा आरम्भ प्रादि का त्याग कर विधिवत् सामायिक करनी ही चाहिये। कहा भी है--
चतुरार्वतश्रितयश्चत्तुः प्रणामः स्थितो यथाजातः ।
सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।।रत्नकरण्ड,।।
चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त अर्थात् १२ पावर्त और एक एक प्रणाम-इस तरह चार प्रणाम कर आभ्यन्तर और वाह्य परिग्रह रहित मुनि के समान मन वचन काय को शुद्ध रख कर स्वङ्गासन अथवा पदमासन आदि माड़कर सुबह, दोपहर और संध्याकाल-तीनों समय सामायिक करने वाला व्यक्ति तृतीय प्रतिमा धारी है ।
पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में सामायिक को तत्वोपलब्धि का मूल हेतु कहा है--
"रागद्वेपत्यागानिखिलद्रव्येषु साम्यवलम्ब्य ।
तत्त्वोपलब्धिमूल बहुश: सामायिक कार्यम् ।।१४८।।
"रागद्वेष के त्याग पूर्वक समस्त इष्टानिष्ट पदार्थों में साम्य भाव धारण कर तत्त्वोपलब्धि का मूल-प्रधान हेतु जो सामायिक है उसे प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये ।" उस सामायिक में तत्पर-प्रवृस धावक के समस्त सावद्य योग-पाप रूप प्रवृत्तियों का त्याग हो जाने से चारित्र मोहनीय का उदय होने पर भी उपचार से उस समय महावतपना है--
"सामायिकाश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् ।
भवति महानतमेषामुदयेऽपि चरित्र मोहस्य ।।पुरुषा. १५०।। अब प्रोषध प्रतिमाधारी का स्वरूप बताते हैं--
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां चतुः पर्येषु सर्वदा ।
उपवासवृती योऽसौ श्राद्धो लोके चतुर्थकः ॥८६॥
अन्वयार्थ . (यो) जो (चतुः पर्देषु) चारों पर्वकालो में (अष्टम्यां चतुर्दश्यां च ) अष्टमी चतुर्दशी के दिनो में (सर्वदा) सदा (उपवासवती) [पूर्व और उत्तर दिनों के प्रकाशन पूर्वक] उपवास करता है (असो लोके) वह लोक में (चतुर्थक:) चतुर्थ प्रोषधप्रतिमाधारी (श्राद्धो) सम्यकदृस्टि वाधक है।
भावार्थ - प्रोषध प्रतिमाधारी हमेशा अष्टमो और चतुर्दशी रूप पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास अर्थात् १६ प्रहर का उपवास करता है । प्रोषधोपवास करने वाला पर्व के दिन प्रारम्भ, विषय, कषाय और आहार का त्याग कर धारगणा और पारणा के दिन भी एकाशन करता है। प्रोषधोपथास शिक्षाबत में तो कभी अतिचार भी लग सकते हैं किन्तु प्रोषध प्रतिमा में अतिचार भी दूर करने पड़ते हैं। इस प्रोपधप्रतिमा की उपयोगिता एवं महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्राचार्य बाहते हैं---