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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद सिंगडी जलाना, ओखली में धान्यादि कूटना, घर को भाड़ना और पानी भरना ये पांच अनिवार्य रूप से करने ही पड़ते हैं अतः इनसे उत्पन्न आरम्भ जनित पापार्जन स्वाभाविक हैं । इन्हें ही पञ्चसुना कहते हैं । वर्तमान युग मशीनी युग है । वैज्ञानिक आविष्कारों ने मनुष्य को निष्क्रिय प्रमादी कठपुतला बना दिया है । सारे कार्य मशीन से हो जाते हैं और इस प्रकार कुछ लोग असत्प्रलाप भी करते हैं कि हमें तो पञ्चसूना पाप लगता ही नहीं है। क्योंकि आज आटा पोसने की हाथ से जरूरत नहीं पड़ती। मशीन चक्की पर आटा तयार हो जाता है । चक्की तो बिजली से चलती है हम हाथ से पीसते नहीं फिर हमें क्यों पापास्रव होगा ? तत्जन्य पप्पानव से इस सत्र ग़रो । चल्हा फुकने की भी आवश्यकता नहीं क्योंकि गैस स्टोव आदि साधन हैं और जल के लिये तो कुए ही नहीं हैं, पाइप नल लग गये हैं । झाड़ना बुहारना, चटनी पीसना सब कुछ बिजली मशीन से होता है फिर हमें पाप क्यों लगेगा ? और पाप हो नहीं आया तो फिर उसे धोने को देवपूजादि षट्कर्म करने की क्या आवश्यकता है ? पुण्य रूप साबुन को क्यों मंचित किया जाये ? इत्यादि । इस प्रकार की धारणा पूर्णतः गलत है, विपरीत है । विद्य त्त से तो कई गुणों अधिक हिंसा होती है । जहाँ जहाँ बिजली का संचार होता है वहाँ तक के असंख्यात जोव मरण को प्राप्त हो जाते हैं अत: पञ्चसूना दोष से बचाव नहीं हुआ अपितु प्रमाद अधिक होने से अधिक हिंसा हुई । अतः श्रेणिक महाराज के राज्य में भी
प जीव हिंसात्मक वस्तुओं का प्रयोग नहीं करते थे । राजा श्रेणिक स्वयं भी शूद्ध विधि से तैयार की गई बस्तुओं का सत्पात्रों को दान करते थे तथा परम विवेकशील थे । हिमा से भयभीत थे।
दया
प्रान्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतीति नाम भाक् । राजविद्याश्चतस्रोऽपि तस्याभवन् फलप्रदाः ।।६।।
अन्वयार्थ ---(इति) इस प्रकार राज्य संचालन में कुशल (तस्य) उस श्रेणिक महागज की आन्वीक्षिकी, यी, बार्ता और दण्डनीति नाम वाली चारों ही राजविद्याएँ सफलउत्तम फल को देने वाली थीं ।
भावार्थ-राज संचालन एक वृहद् कला है। राजा अपनी प्रजा का रक्षक पोषक और उत्त्थान करने वाला होता है । जिस प्रकार माता पिता अपनी संतान का भरण पोषण और सर्वाङ्गीण विकास करते हैं, योग्य बनाते हैं उसी प्रकार योग्य राजा भी अपनी समस्त प्रजा को दुर्गणों से रक्षित कर सद्गुणी योग्य चारों पुरूषार्थों का साधक बनाता है । शिष्टों का पालन और दुष्टों का निग्रह करता है । जिस प्रकार माता पिता पुत्र के प्रति वात्सल्य के साथ समयानुसार ताड़ना, दण्डादि का प्रयोग भी करते हैं उसी प्रकार राजा भी प्रजा के प्रति समयानुसार साम, दाम, दण्ड भेद का प्रयोग किया करते हैं।
राजाओं को चार प्रकार की नीतियाँ प्रसिद्ध हैं-- (1) आन्वीक्षिकी-शब्दानुसार इसका अर्थ भी है । अर्थात् सूक्ष्म निरीक्षण करना,