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धीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
अपने बलाबल की पहिचान करना, हिताहित का ज्ञान करना, अच्छा बुरा समझना, सच्चे अठे का परिज्ञान करना आदि अर्थ आन्वीक्षिको नीति से परिलक्षित होते हैं । जिस प्रकार रत्नपरीक्षक रत्न की परीक्षा करता है उसी प्रकार राजा, न्याय के लिये सूक्ष्म बुद्धि के प्रयोग रूप ऐसी आन्वीक्षिकी विद्या का प्रयोग करता है।
(2) त्रयी विद्या शास्त्रानुसार धर्म अधर्म समझकर उसके सफल कुफल की विवेचना करना, धर्म को स्वीकार करना और अधर्म का परिहार करना यह नयी विद्या है।
(3) दार्ता- अर्थ अनर्थ को समझकर प्रजाजनों का रक्षण करना पालन करना वार्ता है।
(4) दण्डनीति दुष्टों का दमन करना, अन्याय को रोकना पापी अपराधी को इस प्रकार दण्ड देना कि वे अपराध त्याग दें और अन्य जनों को उस प्रकार के दोषों से भय हो जाय ताकि वे अपराध ही न करें। इस प्रकार इन चारों विद्याओं का यह संक्षिप्त लक्षण है। (विशेष जानकारी के लिये देखिये महापुराण पर्व नं. ४) भूपति श्रेणिक इन सभी विद्याओं में निष्णात थे इसलिये राज्य में अमन चैन था ।। ६६ ।।
स बभौ भूपतिनित्यं परैराजशतैर्वृतः ।
यथा स्वर्ग सुधीश्शकस्संयुतस्सुरसत्तमः ॥७०।। अन्वयार्थ-- (यथा) जिस प्रकार (स्वर्ग) स्वर्गलोक में (सुधीः) श्रेष्ठबुद्धि वाला (शक्रः) इन्द्र (नरसन्तमैः) उत्तम अनेक देवों के द्वारा (संयुतः) परिवृत हुआ (वसति) रहता है (तथा) उसी प्रकार (सः भूपतिः) वह राजा श्रेणिक (नित्यं) सतत (परैर्राजशतवृतः) श्रेष्ठ अनेक राजाओं से घिरा हुआ (बी) शोभता था।
भावार्थ-महाराज श्रेणिक के सद्गुणों उदार वृत्ति और स्नेहपूर्ण मित्रवत् व्यवहार से अनेकों श्रेष्ठ राजा उसकी सेवा में उपस्थित रहते थे । उन सुयोग्य वीर शक्तिशाली राजाओं से परिमण्डित श्रेणिक महाराज इस प्रकार शोभायमान होते थे मानो श्रेष्ठ देवताओं से सेवित बुद्धिमान इन्द्र ही स्वर्ग लोक से आकर यहाँ मर्त्यलोक में राजसिंहासन पर आ दिराजा है । यहाँ श्रेणिक को कवि ने अर्थात् आचार्य श्री ने इन्द्र की तुलना दी है ।। ७० ॥
तथा स राजितो राजा राज्याङ्ग सप्तभिस्तराम् ।
जीवादिसप्तभिस्तत्त्वैर्यथा लोकोऽयमुनतः ॥७॥ अन्षणर्थ (यथा) जिस प्रकार (जीवादिसप्तभिः तत्व:) जीवादि सात तत्वों से (समुन्नतः लोकोऽयम् ) समुन्नत यह लोक (राजितो) शोभित है (तथा) उसी प्रकार (राजा)