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बापाल चरित्र नवम परिच्छेद]
[४६७ सुनों संसार में अनन्तों भध्यात्मा इसके प्रभाव से मुक्त हो चुके हैं और अनेकों ही निरन्तर शिब श्री के पात्र होंगे अतः मोक्षाभिलाषी भव्यों को शक्ति भक्ति के अनुसार इस महापवित्र, स्वर्ग, मोक्ष दायक शुभवत को आराधना यथासमय करना ही चाहिए । नन्दीश्वर महापर्व की महिमा
कातीत है । मनुष्य की क्या बात इसका माहात्म्य धरणेन्द्र और साक्षात वहस्पति भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सकते । इस प्रकार इस महावृत का स्वरूप, विधि और गरिमा श्रीगुरु से सुनकर वह राजा श्रीकान्त अपनी प्रिय प्रिया श्रीमती के साथ अत्यन्त हर्षित हुआ । श्रीमुनिराज वरदत्तस्वामी को नमस्कार कर श्रद्धा और भक्ति से दोनों ने शुभबूत धारण किया। सन्तुष्ट हो वतलेकर घर आये । संसार पूज्य व्रत को लाकर उन्हें अपार प्रानन्द हुआ। जिम प्रकार विधि गुरुदेव ने कही थी तदनुसार विधिवत वृतपालन कर उत्तम विधि से उद्यापन भी किया । प्रायु के अवसान समय स्वर्गमोक्ष दायक समाधि धारण की। पञ्चपरमेष्ठीवाचक महामन्त्र णमोकारमन्त्र का स्मरण करते हुए साम्यभाव से शान्ति पूर्वक प्रात्मचिन्तन करते हुए प्रारण विसर्जन किये । वत के फलोदय से महाराज श्रीकान्त महद्धिकधारी ग्यारहवें स्वर्ग में उत्तमशतारेन्द्र उत्पन्न हुए और उनकी महारानी श्रीमतोदेवी उस इन्द्रराज की महासुन्दरी, पुण्यकर्मतत्परा परमप्रिय शचि-इन्द्राणी हुई ।।१०४ से ११२।।
गौमाविक बौदामा दोषलायां विशेषतः । अन्तर्मुहूर्तमात्रेण सम्पूर्ण नवयौवनः ॥११३॥ देवाझवस्त्र संयुक्तो दिव्याभरण भूषितः । लसत् किरीट माणिक्य प्रभानिजितभास्करः ॥११४॥ सुख स्वभाव निशेषो जंगमो वा सुरमः । किमिवं स्थानक विन्यं महासन्तोष दायकम् ॥११॥ कोऽहम् कस्मात् समायातो दिव्यरत्न महीतले ।। इत्यादिकं स्मरणचित्ते हर्ष निर्भर विग्रहः ॥११६।। तवा जाताअधिर्मत्वा सर्व पूचं भवार्जितम् ।। दानपूजा तपः शीलं परोपकृति संयुतम् ॥११७॥ पुनः पुनः प्रशस्योच्चश्शासनं श्रीजिनेशिनाम् । सप्तधातु विहीनस्सन् वात पित्तादिजिसः ।।११८॥ स तत्रस्थे सुधाकुण्डे स्नात्वा रोत्या प्रमोदतः । तत्रस्थ श्रीजिनेन्द्राणां स्वर्णचैत्यालयाविषु ।।११।। शाश्वतीः पञ्चरत्नानो प्रतिमाः पापनाशनाः । संकल्पमात्र सम्प्राप्तैः सार गन्धादि वस्तुभिः ।।१२०॥