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________________ ४६८ ] [श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद पूजयामास पूतात्मा चकार स्तुतिमुत्तमाम । स्वर्गादि सुख सम्पत्ति दायिनी भव्य देहिनाम् ॥१२१ अन्वयार्थ—(विशेषत:) प्रातिशायीरूप से (कोमलायाम ) कोमल (प्रोपपादिक) उपपाद (शैयायाम ) शैयापर (अन्तर्मुहुर्तमात्रेण) अन्तर्मुहुर्त में ही (नवयौवनः) नवीन यौवन (सम्पूर्णः) अवस्था प्राप्त (दिव्याभरण भूषितः) दिव्य अलङ्कारों से मण्डित, (देवाङ्गवस्त्रसंयुक्तः) देवशरीर के योग्य बस्त्र सहित (माणिक्यप्रभालसत्) माणिक्यरत्न की कान्ति से शोभायमान् (निजितभास्कर:) सूर्य को जोतने वाला (किरोटः) मुकुटवाला, (सुखस्वभाव:) स्वभाव से सुखकारो (निर्दोषः) दोष रहित (वा) मानों (जङ्गमः) जीवन्त (सुरद्र मः) कल्पवृक्ष हो हो, (महासन्तोषदायकम ) अत्यन्त सन्तोष दायक (दिव्यम ) दिव्य-अपूर्व (स्थानकम् ) स्थान (इदम.) यह (किम् । कौन है ? (अहम ) मैं (कः) कौन हूँ (दिव्यरत्नमहीतले) इस अपूर्व रत्न भूमि पर (कस्मात् ) कहाँ से (समायातः) पाया हूँ ? (इत्यादिकम् ) इत्यादि (स्मरणचित्त) विचार से जातिस्मरण होने पर (तदा) तब (हर्षनिर्भरविग्रहः) हर्ष से पुलकितशरीर (जाता हआ (अवधिः) अवधि ज्ञान (जात: हो गया. (दान पजातपः। पूजा, तप (शीलम ) शीलाचार (परोपकृति) परोपकार (संयुतम ) सहित (सर्वम ) सम्पूर्ण (पूर्व भवाजितम) पूर्व भव में उपार्जन किया यह फल है (मत्वा) समझ कर (श्रीजिनेगिनाम्) श्रोजिनभगवान के (शासनम ) शासन को (पुनः पुनः) बार-बार (उच्चैः) अत्यन्त (प्रशस्य) प्रशंसा करता हुआ, (वातवित्तादिन जित:) बात पित्त कफादि विकार रहित (सप्तधातुविहीनस्सम् ) सप्तधातु रहित शरीगे होता हुआ (स:) उसने (तत्रस्थे) वहीं स्थितः (अमृतकुण्डे) अमृतभरे सरोवर में (रीत्या) विधिवत् (स्नात्वा) स्नान करके (प्रमोदतः) प्रानन्द से (तत्रस्थ) स्वर्ग में स्थित (स्वर्ण वैत्यालयादिषु) सुवर्ग के चैत्यालयों में (श्रीजिनेन्द्राणाम ) प्रोजिनभगवान को (शाश्वतीः) अकृत्रिम (पञ्चरत्नानाम ) पाँच प्रकार के रत्नों की (पापनाशनाः) पाप नाशक (प्रतिमा:) बिम्बों को (संकल्पमात्रसम्प्राप्तः) चिन्तवनमात्र से प्राप्त (सारगन्धादिभिः , उतम वस्तुओं से ( पूजयामास) पूजा को (तथा) तथा (पूतात्मा) उस पबित्रात्मा ने (भव्यदेहिनाम ) भव्य प्राणियों को (स्वर्गादिसुग्वसम्पत्तिदायिनीम) स्वर्गादि के सुख सम्पति को देने वाली (उत्तमाम ) उत्तम (स्तुतिम) स्तुति (चकार) की । भावार्थ : सन्यास मरण कर श्रीकान्तमहाराज, अत्यन्त सूकोमल उपपाद या पर अन्तर्मुहूर्त मात्र में पूर्ण यौबनवान होकर उठा । भानों निद्रा से उठा हो । उसका वक्रियिक शरीर अपूर्व सुन्दर था, अद्भुत वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित था । चमकता हुआ मुकुट पहने था। उसमें मरिण की प्रभा निकल रही श्रो । माणिवय प्रभा सूर्यविम्ब की कान्ति को जीत रही श्री। शरोर सौन्दर्य भास्कर को भी निरस्कार करने वाला था । स्वभाव से ही वह शरीर सुखद था, प्रिय था. दोषों ख्याधि व्याधियों से रहित था, उसे देखने से प्रतीत होता था मानों कल्पवृक्ष ही जीवन्त रूप धारण कर प्रकट हुआ है । स्वयं वह इस रूपलावण्य भरे स्थान को देखकर विचार करता है 'यह अलौकिक स्थान कीनसा है ? कितना सन्तोष दायक है ? मैं कौन है ? कहाँ से यहाँ पाया हूँ ? क्यों आया ? इस रत्नमयो भूमि पर याने का कारण क्या है ? इस प्रकार
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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