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[ोपाल चरित्र अष्टम परिषद र्शनं) सम्यग्दर्शन रहित व्रतनिकाय युत) बतों से सहिन जो पात्र वह कुपात्र है। (युग्योज्झितं) सम्यग्दर्शन रहित और वनों से भी रहित (नरं) व्यक्ति को (अपात्रं विद्धि) अपात्र जानो (इदं) ऐसा जिनागम में बताया है।
मावार्थ--वाह्याभ्यंतर परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ साधु उत्कृष्ट पात्र हैं । देशव्रती श्रावक मध्यम पात्र हैं। व्रत रहित अर्थात तीन गणपत और चार शिक्षाक्तों से रहित सम्यग्दृष्टि पुरुष का है ज सम्यग्दर्शन से भी रहिस और ब्रतों से भी रहित व्यक्ति अपात्र है ऐसा निश्चय से जानो अर्थात् जिनागम में उक्त प्रकार उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्र तथा कुपात्र और अपात्र का स्वरूप बताया गया है ।।५७।।
इति त्रिविधपात्रेभ्यो यथाहारस्तथौषधं । बानं भव्यः प्रकर्त्तव्यं स्वर्गमोक्ष-सुखाथिभिः ॥५८।। जिनोक्त शास्त्रदानेन पात्रेभ्यः परमावरात ।
संभवेत् केवलज्ञानी सुभव्यः क्रमतो ध्र यम् ॥५६॥
अन्वयार्थ-(इति) इस प्रकार (त्रिविधपात्रेभ्यो) तीन प्रकार के पात्रों को (यथा. हार:) यथाविधि योग्य आहार (तथा औषधं) तथा औषध (दान) दान (स्वर्गमोक्षसुखाथिभिः) स्वर्ग मोक्ष सुख की इच्छा करने वाले (भव्यः) भव्यजनों के द्वारा (प्रकर्तव्यम्) प्रकर्षण कर्तव्य विशेष रूप से करना ही चाहिये (जिनोक्त शास्त्र जिनेन्द्रप्रणीत शास्त्रका (परमादरात) अति विनय पूर्वक (पात्रेभ्यः दानात्) पात्र के लिये दान करने से (ध्र वम ) निश्चय से (सुभव्यः) निकट भव्य जीव (क्रमतो) क्रम से (केवलज्ञानी) केवलज्ञानो (संभवेत्) हो जाते है अथवा होने को सुयोग्यता रखते हैं।
भावार्थ--उत्तम, मध्यम और अधन्य तीन प्रकार के पात्रों को यथाविधि योग्य आहार, प्रकृति अनुसार शुद्ध प्राहार तथा औषध का दान करने से क्रमशः श्रेष्ठ स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति होती है अतः स्वर्ग मोक्ष सुख की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को प्राहारदान औषध दान प्रादि अवश्य करना चाहिये । अनेक धर्मात्मक वस्तू का, अनेकान्त सिद्धा स्यादवाद के बल से यथार्थ प्रतिपादन करने वाला जो जिनागम है उसका परमादर पूर्वक पात्र के लिये देना ज्ञान दान है । एकान्त का पोषण करने वाले अन्य ग्रन्थ वा साहित्यों का प्रकाशन वितरणादि ज्ञानदान नहीं हो सकता है क्योंकि वैसे शास्त्र सम्यग्ज्ञान के कारण नहीं है उनसे मिथ्यात्व का पोषण होता है । जिनमें पूर्वापर विरोध न हो ऐसा जिनप्रणीत आगम ही सच्चा पागम है और उसको पात्र के लिये देना ज्ञान दान है।
ज्ञान दानादि का फल बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि शानदान करने से श्रेष्ट भव्य पुरुष निश्चय से क्रमश: अल्पकाल में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं जो परम अभ्युदय का प्रतीक है। कहा भी है ।।५८, ५६।।