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________________ ३१२ ] • [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्वयार्थ-- (सः) वह द्वारपाल (प्राह ) सेठ से बोला (अहो) हे (श्रेष्ठिन् ) सेठ (अयम् ) यह (भटोत्तम: ( शूरो में शूरतम (श्रीपाल:) श्रीपान है (च) और (स्वपुण्यतः) अपने महापुण्य से (सः) बह (विचक्षणः) अद्भुत बुद्धिमान (भजाभ्याम् ) हाथों से (सागरम) समुद्र को (अपि) भी (समुत्तीर्य) पार कर-तैर कर (अत्र) यहाँ (आगत्य) पाकर (अस्य) इस (नृपस्य) राजा की (सुतायाः) पुत्री (गुणमालायाः) गुणमाला (कन्यायाः) कन्या का (प्राणनाथः) भर्ता (समजायत) हुआ। भावार्थ सेठ के प्रश्न को सुनते ही द्वाखाल मानों चोंका ! आश्चर्य से कहने लगा। क्या सेठ जी आप नहीं जानते ? यह एक महान भजवली बोराग्रगी, सूभटशिरोमणि है। इसका नाम श्रीपाल है । यह महान् पुण्यात्मा और धर्मात्मा एवं दयालु है । अरे महाशय जी ! इसका धेर्य भी अद्वितीय है। यह स्वयं अपने विशिष्ट पुण्योदय से भुजाओं से अगम्य सागर को तर कर यहाँ पधारा है यही नहीं, यहाँ के भूपति की मुगावती, सुकुमारी, अनिद्यसुन्दरो कन्या के साथ विधिवत विवाह कर राज जमाई बना है। राजा की पुत्री मुरणमाला का प्राणनाथ होकर यह विचक्षण सर्वप्रिय और सर्व मान्य हो गया है। हमारे महाराज को भी इससे अप्रतिम प्रोति और गौरव है ।।११६ ११७।। द्वारपाल के मुख से भोपाल कोटिभट का वृतान्त सुनतेसुनते ही धवल सेठ के पैरों तले की जमीन धंसने लगो। वह आश्चर्य, भय और पश्चाताप के गहन गर्त में फंस गया । वह विचार करने लगा--- तन्निशम्य भयस्त्रस्तः श्रेष्ठी चित्ते विचिन्तयत । अहो मया कृतंकार्य विधिश्चके तथान्यथा ।।११।। अन्धयार्थ -(श्रेष्ठी) धबल सेठ (तन्निशम्य ) श्रीपाल का वृतान्त सुनकर (चित्ते) मन में (व्यचिन्तयत् ) सोचने लगा (अहा) हाय-हाय (मया) मेरे द्वारा (कृतम् ) किया गया (कार्यम ) कार्य (विधिः) भाग्य ने (तथा) उससे (अन्यथा) विपरोत (चक्र) कर दिया । भावार्थ-धवल सेठ ने द्वारपाल का कथन सुना । उसे तो मानों तुषार मार गया । लगा कि शिर पर वचत्रहार हुमा । करे तो क्या करे । माथा घूमने लगा । वह विचार करता है आखिर यह हुया क्या ? क्यों ऐसा हो गया ? यह किस प्रकार सम्भव है ? मैंने तो कुछ और ही कार्य किया था किन्तु विधाता (भाग्य) ने दूसरा ही नाटक रच दिया । सागर की उत्ताल तरङ्गों में, विकराल, मगरमच्छ, घडियालों के मुख में पडकर सदा को इसे विदा किया था परतु यह तो जिन्दा ही है । यही नहीं राजाश्रय पाकर, राजजंवाई बनकर अत्यन्त बलिष्ट हो गया है ।।११८।। पुनः सोचता है जामातायन्नपस्यासीत् महाविभव संयुतः । इदानी मे न जानेऽहं किमप्यग्न भविष्यति ॥११६।। अन्वयार्थ--(यत ) यह जो कि (इदानीम्) इस समय (महाविभव) महान वैभव (संयुतः) सम्पन्न (नृपस्य) राजा का (जामाता) जंवाई (अपि) भी (प्रासीत्) हो गया
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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