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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
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अन्ययार्थ--नीतिकार कहते हैं - (दुष्टात्मा ) दुष्ट (दुर्जनः ) दुर्जन मनुष्य ( सज्ज - नम ) सत्पुरुष को ( वीक्ष्य ) देखकर (दुर्मदः) मदोन्मत्त ( भवेत ) हो जाता है ( युक्तम) ठीक है (कुधीः) दुर्बुद्धि (धूकः ) उल्लू ( भास्करस्थ ) रवि के ( उदये ) उदय होने पर ( श्रन्धकः ) अन्धा (स्यात्) हो जाता है ।
मायार्थ यहाँ श्राचार्य श्री दृष्ट, परिचित उदाहरण देकर नीति का प्रतिपादन कर रहे हैं। संसार में दुर्जन स्वभाव से ही पर का उत्कर्ष नहीं देख सकते, अपितु स्वयं दुःखी हो उसके आनन्द को मिटाने की चेष्टा करते हैं। कौशिकशिशु उल्लू प्रभात होते ही अन्धा हो जाता है, सर्वोपकारी सूर्य के उज्ज्वल प्रकाश को देख नहीं सकता । वह करे भी क्या ? उसका स्वभाव ही देश है। उसकी कीफिरों को निरखने की योग्यता ही नहीं है । यही दशा थी श्रीपाल रूपी सूर्य को देखकर धवलसेठ रूपी उल्लू की । उसकी खि तिल-मिला गई। चारों ओर अन्धेरा छा गया । होश हवाश सब हवा हो गये । पर करे क्या ? जाय कहाँ ? कहे क्या ? किससे कहे ? कि कर्त्तव्यविमूढ या बेचारा मतिविहीन । ज्यों त्यों कर वेग से सभा के बाहर आया ।। ११४ ।।
स निर्गत्य सभायाश्च पप्रच्छ द्वारपालकम् ।
कोऽयं श्रीपालकश्चेति ब्रूहि भो द्वाररक्षकः ।। ११५।।
अन्वयार्थ - ( स ) वह सेठ ( सभायाः ) सभा के बाहर (निर्गत्य ) निकल कर जाता है (च) और (द्वारपालकम् ) द्वारपाल को ( पप्रच्छ) पूछता है ( प्रथम ) यह (श्रीपालक : ) श्रीपाल ( क ) कौन है (च) और कहाँ से, केसे आया (इति) इत्यादि वृत्तान्त ( भो ) हे ( द्वाररक्षक : ) द्वारपाल ( ब्रूहि ) कहो ।
भावार्थ - - कहावत् है "चोर के पाँव कितने" चोर तनिक सी माहट आवाज पाते ही भाग खड़ा होता है । उसी प्रकार धवल सेठ भी श्रीपाल की छाया देखते ही भाग खडा हुआ । ज्योंत्यों कर मुंह छिपाये राजसभा से बाहर आया। किसी से भी वार्तालाप करने का साहस नहीं हुआ। पता लगाये बिना भी चैन न था करे तो क्या करे । अन्ततः उसने द्वारपाल से रहस्य लेने का उद्यम किया। उसके एकान्त में रहने से ठीक रहेगा यह सोचकर उसे पूछा है द्वाररक्षक तुम सच सच बताओ यह श्रीपाल कौन है । कहाँ से कैसे आया है ? अथवा इसी द्वीप का है । इसके सम्बन्ध में मैं स्पष्ट जानना चाहता हूँ । आप द्वार रक्षक हैं तुम्हें सब कुछ शा होगा | अतः स्पष्ट इसका परिचय बताओ ।।११५ ।।
अहो श्रेष्ठिन् स च प्राह श्रीपालोऽयं भटोत्तमः । भुजाभ्यां सागरं सोऽपि समुत्तीर्य स्वपुण्यतः ॥ ११६ ॥
त्रागत्य नृपस्यास्य सुतायाः समजायत । कन्याया गुणामलायाः प्राणनाथो विचक्षणः ॥ ११७ ॥