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________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] ( इदानीम् ) इस समय ( अहम् ) ( किम् ) क्या ( भविष्यति ) होगा । [३१३ (न जाने) नहीं जानता हूँ कि ( अ ) यागे (मे) मेरा भावार्थ - - अपराधी सदा व्याकुल रहता है। भय से त्रस्त होता है उसे निरन्तर अपने षड्यन्त्र के खुल जाने की श्राशङ्का बनी रहती है। जीवन में निराकुलता नहीं आती इसी से सुख और सन्तोष उससे दूर भाग जाते हैं । वेचारे धवल का भी होश हवाश हवा हो गया, वह विचार करता है देखो भाग्य की विडम्बना, मैं तो इसे यमलोक पहुँचा जान निश्चित सा हुआ, पर यह तो मस्त है। राजा परीखा धन-वैभव तो प्राप्त हुआ ही कन्यारत्न के साथ राजसम्मान और प्रजा वात्सल्य भी प्राप्त हो गया। मैं अपराधी हूँ क्योंकि इस निर्दोष को छल से सागर में गिरबाया, उसकी पत्नि के साथ अत्याचार किया। यदि यह रहस्य खुल गया तो न जाने मेरा क्या होगा । कहाँ मैं कोट और कहाँ यह सिंह ? ठीक ही है दुर्जन के विचार भी वैसे ही होते हैं। वह अपने समान ही अन्य को भी नीच सङ्कीर्ण विचारज मानता है । श्रीपाल की शालीनता और उदारता मेरु की चोटी समान भला उसके ऊपर तक उसकी धुंधली आंखें भला कैसे पहुँच सकती थीं ? अतः वह पुनः वही विचारधारा में खो गया। दूध भरे स्तन से भी जोक रक्तपान ही करती है। सर्प मधुर दुग्ध पीकर भी विष का परित्याग नहीं करता है। देव-देवियों से तिरस्कृत हुआ, अपने साथियों से अपमानित हुआ तो भी उसी प्रकार की कुचेटाओं के करने का प्रयत्न करता है । वह पापी सोचता है कि मेरा दुष्कृत्य प्रकट हो उसके पहले येन-केन उपायेन इस श्रीपाल को यमलोक पहुँचाना चाहिए । अन्यथा मेरा मरण निश्चित है । पापियों की चालें टेडी और पेचीदी होती हैं। सज्जन सरलस्वभावी भला कैसे समझ सकते हैं | अस्तु उस दुष्टात्मा धवल ने पुनः उस निरपराध वीर को मारने का निष्फल प्रयत्न आरम्भा ।।११६ ॥ इत्यनुव्याय पापात्मा मन्त्रं कृत्वात्र मन्त्रिभिः || चालकान्समाहूय बहुरूपविधायकान् ॥ १२०॥ अन्वयार्थ - ( पापात्मा) पापी धवल सेठ इस प्रकार पुनः कुत्सित विचार करके मन के लड्डू खाने की इच्छा करता है । दुरात्मा भला अपना स्वभाव छोड़ता है क्या ? (इति) इस प्रकार श्रीपाल के घात का उपाय ( अनुध्याय) चिन्तवन कर ( मंत्र ) फिर यहीं (मन्त्रिभिः ) मन्त्रियों के साथ ( मन्त्रम्) मन्त्ररणा ( कृत्वा) करके (बहुरूपविधायकान् ) अनेक रूप धारी ( चाण्डालान् ) बहुरूपियों को ( समाहूय) बुला कर कहा नृत्यं कृत्वा नृपस्याचं यूयं पश्चादहं पिता । अस्माकं त्वं सुतो वत्स श्रीपाल क्व गतोऽसि भो ॥१२१॥ अन्वयार्थ – भाव से कृष्ण नाम से बवल उन भांडों को कुयुक्ति सिखाते हुए कहता है ( यूयम्) आप लोग (नृपस्य ) राजा के ( अर्थ ) सामने ( नृत्यम् ) नाच ( कृत्वा) करके ( पश्चात् ) फिर श्रीपाल से कहना (हम) में (पिता) पिता हूँ ( त्वम् ) तुम ( अस्माकम् ) हमारे
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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