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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [१४३ भावार्थ-कोई मनुष्य कितने ही व्रत पालन करे, जप वारता रहे, उपवासादि कर कायक्लेश भोकरे, अनेकों उपसर्ग भी सह ले, किन्तु यदि उसके सम्यक्त्व नहीं है तो ये समस्त क्रियाये, संसारवर्द्धक ही हैं । अर्थात् कर्मनाश करने और सुख देने की साधक नहीं हो सकती हैं । सम्यग्दर्शन सहित थोडे भी व्रत, जप तपादि अनुष्ठान आत्मसिद्धि के कारण होते हैं । सम्यक्त्वी जीव ही मुक्ति पाता है । तीन लोक का नाथ बन सकता है ॥३३॥ सदृष्टिबन्धनिर्मुक्तः स्त्रीनपुंसकतां तथा । दुर्गत्यादीनि दुःखानि नैव प्राप्नोति संसृतौ ॥३४॥ अन्वयार्थ—(सदृष्टिः] सम्मष्टि प्राणी (बन्धनिर्मुक्तः) कर्मबन्ध रहित हुमा (तथा) तथा-उसी प्रकार (दुर्गति) नरक, तिर्यञ्च (यादीनि) इत्यादि के (दुःखानि) दु:खों को (संसृती) मंसार में (नैत्र) नहीं हो (प्राप्नोति) प्राप्त करता है । __भावार्थ-सभ्यग्दर्शनयुत जीत नरकगति और तिर्यञ्च गति में नहीं जाता । पूर्वबद्ध आयुष्क है तो प्रथम नरक के नीचे नहीं जाता । तिर्यञ्चों में जाना होगा तो भोग भूमि का पुरुषतिम्रञ्च ही होगा । वद्धायुष्क का अर्थ है कि किसी मनुष्यादि ने पहले नरक या तिर्यञ्च आयु का बन्ध कर लिया और पुनः उसने शुभभावों-शुभकार्यों से सम्यग्दर्शन ग्रहण किया तो प्रथम नरक के नीचे नहीं जायेगा और कर्म भूमि का तिर्यञ्च भी नहीं होगा ।।३४।। किन्तुच्चैर्देवमानुष्यभवैः कश्चित्सुखावहैः । भुक्त्वा सुखं जगत्सारं संप्राप्नोति शिवास्पदम् ॥३५।। प्राचयार्थ--(किन्तु ) नरक, तिर्यक गति रहित (कश्चित) कुछ (सुखावहै:) सुख को देने बाले (देवमानुष्यभः) देव और मनुष्यभवों द्वारा (जगत्सारम् ) संसार में सारभूत (सुखम् ) सुख को (भुक्त्वा) भोगकर (शिवास्पदम् ) मोक्षपद को (संप्राप्नोति) प्राप्त कर लेता है। भावार्थ-जो प्राणी निर्मल सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है वह दुर्गति का पात्र नहीं होता। देव और मनुष्यगति के कुछ भवों को धारण करता है। उनमें भी संसार जन्यसारभूत विषय सुखों को पुण्य की बलवत्ता से भोगकर शीघ्र ही अमरपद-मोक्षपद प्राप्त कर लेता है । ॥३५।। इति सूक्तं महाभब्यस्सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् । पालनीयं जिनेन्द्रोक्तं संसाराम्भोधि तारणम् ॥३६॥ अन्यथार्थ-(इति) इस प्रकार (सूक्तम ) सम्यक् प्रकार कथन है कि (मुक्तिकारणं) मोक्ष का कारण (संसाराम्भोधि) संसार सागर को (तारणम्) तारने वाले (जिनेन्द्रोक्तम् )
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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