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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद भोगोपभोग सम्पदा के साथ--"सर्वजीवदयावहान्' विशेषण श्लोक न० ८५ में दिया है । साम्यभात्री ही दयानिष्ठ होता है । अतः निरतिचार सम्यग्दर्शन को उपलब्धि दर्शनविशुद्धि है । इसी को पोषक अन्य पन्द्रह भावनायें हैं-विनयसम्पन्नता, शीलवतेषु अनतिचार, अभीषण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितरत्याग, क्तितस्तप, साधुसमाधि, यावृत्ति ग्रहद्भक्ति, सिद्धभक्ति, प्राचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति, अावश्यकापरिहाणि मार्ग प्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व ये १५ भावनायें और दर्शनविशुद्धि सहित १६ भावनायें तीर्थकर पद की प्राप्ति में निमित्त हैं । इनका विशेष लक्षण तत्वार्थ सूत्र को टीका में देखें ।।८।।
प्रथैका महीनाथस्सभायामासने स्थितः ।
गङ्गा तरङ्ग सङ्काशर्योज्यमानस्सुचामरैः ॥८६॥ अन्वयार्य-(अथ) इसके बाद, यहाँ अथ शब्द कथा प्रारम्भ के अर्थ में है। (एकदा) एक समय (गङ्गातरङ्गसङ्काश:) गंगा नदी श्री लहरों की भांति (बोज्यमानैः) ढोरे जाते हुए (सुचामरैः) श्रेष्ठ चमरों से युक्त (महोनाथः) वह पृथ्वीपती (सभायां) सभा में (प्रासने आसन पर (स्थितः) बिरामा एग्रा ।
भावार्थ-एक समय वह पृथ्वीधर महाराजा थे णिक अपनी सभा में श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए । उन पर पाठ चमर दुराये जा रहे थे । बे कान्तिमान दरते हुए चमर ऐसे प्रतीत होते थे मानों गङ्गानदी की नञ्चल तरङ्ग ही उछल रही हों । क्योंकि गङ्गा का जल दूध समान सफेद दीखता है और चामर भी फैन के समान प्रतीत होते थे ।।८।।
अनेकभमौलिधर-रजितपदपङ्कजः ।
चक्कादिभिस्समायुक्तो देवेन्द्रो वा सुरैर्वृतः ॥६॥ अन्वयार्थ-(तथा) और (अनेक भूमोलिधर रञ्जितपादपङ्कजः) अनेकों मुकुटबद्ध राजारों के नमस्कार करने से जिसके चरणकमल रञ्जित हैं -लोभित हैं ऐसा वह थे णिक राजा (चक्रादिभिःसमायुक्तो) चक्रवर्ती समान प्रभुत्वशाली राजाओं से युक्त, ऐसा प्रतीत होता था मानो (सुरवृत: देवेन्द्रो) देवों से घिरा हुआ इन्द्र हो हो।
भावार्थ--सिंहासनारूढ़ श्रेणिकमहाराज के चारों और अनेकों राजागर। एकत्रित होकर उन्हें नमस्कार कर रहे थे उस समय उनके मुकुटों की कान्ति से उन धणिक महागज के चरण रजित थे और वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो देवों से घिरा हुआ इन्द्र ही यहाँ स्थित है । चक्रवर्ती के समान प्रतापवान, पुण्यवान, वैभवशाली राजा भी सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे । इस प्रकार स्वर्ग के इन्द्र के समान वैभवशाली उस श्रेणिक की शोभा अनुपम ही थी ॥१०॥
यावदास्ते सुखं तावद् वनपालेन सादरम् । नानापुष्पफलान्युच्चर धृत्वा प्रणम्यतम् ॥११॥