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भोपाल चरित्र नवम परिच्छेद ]
[४७६ तुम्हारे पति ने (मिथ्यास ङ्गन) मिथ्याष्टियों को सङ्गति से (जगद्धिनम ) संसार का हितकारी (जैनधर्मम ) जिनधर्म को (संत्यज्य) छोड़कर (दुःखशतप्रदाम् ) सैकडों दुःखों को देने वाला (मुनीन्द्रारणाम ) मुनिराजों को (पीडाम ) दुःख (चक्र) दिया (तथा ) उस प्रकार (पत्युः) पलि का (सर्वदुराचारम् ) सम्पूर्ण दुराचार को ( श्रुत्वा) सुनकर (जिनसद्धर्मसंसक्ता) उत्तम जिनधर्म में लीन (महासती) परमसती (श्रीमती) श्रीमतो (वा) मानों (मुनेर्मतिः) मुनिराज की बुद्धि, (इस्थम ) इस प्रकार (जगौं) बोली (अहो ) आश्चर्य है (मे) मेरा (भर्तुः) पति (पापिन:) पापी (गेहावासः) यह गृहनिवास है क्या ? (निश्चितम्) निश्चय ही (देषयिके) विषयजन्य (सुले) सुख के (भूमिन) शिर पर (वयम) वज्र (पततु) गिरे इस (राज्यम) राज्य को (धिक) धिक्कार (कुराजानम ) दुराचारी राजा को (धिक) धिक्कार
दुःखदायास दुध देने वाले मोशन) भोगों को भी (धिक) धिक्कार (प्रातः) सवेरे (उत्थाय ) उठकर (दुष्कर्मनामिनोम ) पापकर्म विध्वंमिनी (जैनेन्द्रीम) जनेश्वरी (दीक्षाम्) दीक्षा को (गृहिष्यामि ) धारण करूंगो (च) और (इति) इस प्रकार विचार कर (गुणशालिनी) गुणगग मण्डिता वह (उद्घ गम् ) पीडित (चकार) हुयी।
__ भावार्थ हे नृप ! उस भूपति के इन अत्याचारों और दुराचारों को ज्ञात कर एक सती भव्यात्मा सम्यक्त्व मण्डिता श्राविका ने उसकी पत्नी श्रीमती रानी से सम्पूर्ण कुकर्म प्रकट किये । उसने कहा, हे सखि तुम्हारा पति मिथ्यात्वियों की सङ्गति से मूढ़ हो पापाचार कर रहा है । हे देवि ! बह निर्दोष बीतराग संयमों के प्रति दुर्व्यवहार करता है, उसने जिनधर्म छोड़. दिया, प्रतों का त्याग कर दिया । संसार का हितकारक धर्म छोड दुर्गति के कारण अधर्म का सेवक हो गया । नाना प्रकार दिगम्बर गुरुओं को पीडा देना, दुर्वचन बोलना आदि कुकर्म करने में लगा है । इस प्रकार अपने पति के दुराचारों को सुनकर श्रीमती महारानी संज्ञाशून्य सा हो गई । जिनधर्म में रक्त, सम्यक्त्व से युक्त, मुनिराज को परमपावन बुद्धि समान निर्मल चारित्र गुण से विभूषित वह सती कर्ने लगी, अहो यह जगवास, गृहवास ही स्यागने योग्य है। फिर यदि उस घर में पति ही विधर्मी हो, अनाचारी हो तो कहना ही क्या है ? उससे प्रयोजन ही क्या ? इन पञ्चेन्द्रिय जन्य विषयों से क्या लाभ ? इनके भोग से भी क्या ? इन विषय जन्य भोगों के शिर पर वन पड़े, बिजली गिरे, मुझे कोई मतलब नहीं । मैं तो प्रातः होते ही इसका त्याग करूंगी । इस राज्य वैभव को धिक्कार है, ऐसे कुमार्गी राजा को धिक्कार और दुःखों के उत्पादक इन विषयभोगों को भी धिक्कार है । ये महा कष्टदायो हैं । अब मुझे इनका त्याम ही श्रेयस्कर होगा । अस्तु, इस प्रकार विचार कर वह गुण शीलवती महादेवी अत्यन्त दु:खी और विरक्त हुयी। उसने दृढ़ निश्चय किया कि प्रात:काल सकल दुःखों की नाशक, कर्म विधातक जनेश्वरो-दिगम्बर दीक्षा धारण करूगी । आर्यिका व्रत धारण कर तपश्चग्ण करूगी । सत्य है वे व्यसन भी मित्र हैं जिनके आधात से वैराग्य जाग्रत हो जाये ।।३३ से ३८॥
तदा म्लानमुखां देवीं क्वचित् भृत्यो निरक्षत । प्रासाद्यनुपमित्याख्यद् देव त्वं धर्म मुत्सृजन ॥३६॥