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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद कि बहूक्त न भो भव्यास्तयोस्तत्र सुखप्रदा।
पूजा श्रीसि चक्रस्य जाता कल्पलतेब सा ॥१४०॥ अन्टगार्थ ..(मोहे (भमा) राजनों (बहु) अधिक (उक्तेन) कहने से (fr) क्या प्रयोजन (सा) वह (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (पूजा) पूजा (तत्र) वहाँ (तयोः) दानों की (करुपलता इव) कल्पलता के समान (सुखप्रदा) सुखकारी (जाता) हुयी।
भावार्थ : आचार्य कहते हैं कि हे भव्यात्माओं ! मैनारानी और राजा श्रीपाल द्वारा की गई सिद्धचक की पूजा उन्हें कल्पलता के समान सुख देने वाली सिद्ध हुयी । अधिक क्या कहें ? ||१४०||
क्वचित् श्रीपालमाताथ समायाति निजेच्छया।
पुत्र वार्ता शुभां श्रुत्वा स्नेहात्तत्पुरमाययौ ॥१४१।। अन्वयार्थ--(प्रथ) आगे (क्वचित्) एक समय (श्रीपालमाता) श्रीपाल की माँ (निजेच्छया) अपनी इच्छा से (समायाति) आती है (तत्र) वहाँ (शुभाम् ) शुभ (पुत्रवार्ता) पुत्र की वार्ता (श्रुत्वा) सुनकर (स्नेहात्) प्रीति से (तत्पुरम् ) उस नगरो में (अग्नयों) आई ।
भावार्थ--एक समय श्रीपाल की माता अपनी इच्छा से महलों से निकली । पुत्रवियोग से संत्रस्त तो थी ही-मन बहलाने पाती है कि पुत्र के नोरोग होने की शुभ वार्ता को सुनकर उस नगरी में आयी ।।१४१।।
श्रीपाल सन्मखं गत्वा सहर्षस्सपरिच्छदः । नत्त्वा तत्पादयोर्भक्त्या स्वामम्बां गृहमानयत् ॥१४२।।
अन्वयार्थ---(सहर्षः) हर्ष से (सपरिच्छदः) दल-बल से (श्रीपालः) श्रीपाल राजा ने (सुन्मुखम्) सामने (गल्या) जाकर (भक्त्या) भक्ति से (तत्पादयोः) उस माँ के चरणों में (नत्त्वा) नमस्कार कर (स्वाम्) अपनी (अम्बाम्) माँ को (गृहम्) घर (पानयत्) लेकर आया।
मावार्थ--ज्यों ही श्रीपालजी को विदित हुआ कि उनकी जननी उनके विरह से दुःखी पधारी है, तो वह दल-बल के साथ संभ्रम से माता के सन्मुख पाया । अत्यन्त भक्ति से माता के पवित्र चरणों में नमस्कार कर अपनी माँ को सोत्साह घर में प्रवेण कराया । अर्थात् अपने सारे वैभव से उत्सव पूर्वक मावा का पदार्पण अपने महल में कराया ।।१४२।।
मदनाविसुन्वरी तां श्वश्रू मत्वा सुभक्तितः । ननाम चरणाम्भोजौ तस्या विनतमस्तका ।।१४३॥