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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
मालामोगसमित्य स्वपन्यद्रियारपंपैः ।।
सुखं प्रीत्या प्रभुञ्जानौ संस्थितौ पुण्यपाकतः ॥१३७।। (तो) वे दोनों (पुण्यपाकतः) पुण्यरूपी वृक्ष के फलित होने से (नित्यम्) निरन्तर (स्त्र) अपनी (पञ्चेन्द्रियतर्पण:) पाँचा इन्द्रियों को तृप्त करते हुए (नानाभोगशतैः) सैकड़ों प्रकार के भोगों द्वारा संतुष्ट (प्रोत्या) परस्पर परम प्रीति से (प्रमुजानौ) भोग भोगते हुए (सुखम् ) सुखपूर्वक (संस्थिती) रहने लगे।
भावार्थ --मैनारानी के जीवन की काया पलट हो गयी । श्रीपाल का जीवन तो मानों स्वर्गीय हो गया । अब वे दोनों अपने पुण्य के सातिशय फल का उपभोग करने लगे । सत्य ही सती का सतीत्व अचिन्त्य और अतयं होता है। असंभव को सम्भव कर दिखाता है। मैंना के मन में उद्वेग के स्थान पर उमङ्ग, शोक के स्थान पर हर्ष और चिन्ता के स्थान पर परम विवेक जाग्रत हो गया । जिनागम का प्राण "कर्मसिद्धान्त अकाट्य सिद्ध हुा । अहंकार रूप शैतान पर तत्त्वज्ञान की विजय हुयी । मिथ्यात्व का सम्यक्त्व ने परास्त किया ।।१३७।।
पात्रदानं जिनेन्द्रार्चा नित्यं स्तवन पूर्वकम् । स्वशीलमुज्ज्वलं पर्वोपवासमति निर्मलम् ।।१३८॥ तदा प्रभृति नित्यं श्रीसिद्धचकस्य पूजनम् ।
धर्म परोपकाराद्यैश्चक्रतुस्तौ निरन्तरम् ।।१३।। युग्मकम्।।
अन्वयार्ग--(तदाप्रभृति) सिद्धचक्र प्रभाव से सुखी होने पर (तो) वे दोनों दम्पत्तिवर्ग (नित्यम्) नित्य ही (स्तवन पूर्वकम् ) स्तवन सहित (जिनेन्द्रार्चा) श्रीजिनपूजन, (पादानम) सत्पात्रदान (प्रति) अत्यन्त (निर्मलम्) पवित्र (उज्ज्वलम्) निर्भल (स्वशीलम्) शील व्रत (पर्वोपवासम्) पर्व के दिनों में उपवास (नित्यम्) प्रतिदिन (सिद्धचक्रस्य) सिचच की (पूजनम् ) पूजा (च) और (परोपकाराय :) दूसरों का उपकार, तत्त्वचर्चा, वैयावृत्ति प्रादि (धर्म) धर्मकार्यों को (निरन्तरम ) सतत (चक्रतुः) करने लगे।
मावार्थ ... महाराजा श्रीपाल के नीरोग हो जाने पर वे धर्मविमुख नहीं हुए । भोगों में आसक्त नहीं हुए और न कर्त्तव्य से पराङ मुख हुए । अपितु कृतज्ञ के समान धर्म और धर्माचरण में विशेष रूप से संलग्न हो गये । अब दोनों ही प्रतिदिन विधिवत् परमभक्ति से श्री जिनाभिषेक, पूजन, एवं सत्पात्रदान देना, देव, शास्त्र गुरू की उपासना, सिद्धचक्र आराधना, दीन दुःखियों की रक्षा, सेवा सुश्रुषा गुरुओं को वैयावृत्ति आदि शुभकार्यों को विशेष रूचि से करने लगे । अभिप्राय यह है कि धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों कान्यायोचित सेवन करने लगे। तथा मोक्ष पुरुषार्थ की भी साधना का लक्ष्य बनाये रखते थे । इस प्रकार चारों पुरुषार्थों की साधना में इनका समय यापित होने लगा !!१३८ १३६।।