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________________ १६४] [श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद जिनधर्मपरायण हो गये । अटूट वैभव उन्हें प्राप्त हुआ उसी प्रकार अकाट्य भक्ति भी जानत हो गई । मैंना रानी का सुयश विश्वव्यापी बन गया । सर्वत्र उसका यशोगान होने लगा। आज तक उसका स्तवन संसार कर रहा है और आगे भी करता रहेगा । लोकोक्ति है "पहला सुक्ख निरोगी काया" यदि शरीर और इन्द्रियाँ स्वस्थ हैं तो उपलब्ध भोगोपभोग सामग्री उपयोग हो सकता है अन्यथा पाना, न पाना दोनों समान हैं । अतएव वे निरोग हो गये मानों तीनलोक का वैभव मिल गया । जिनधर्म के प्रति प्रगाढ श्रद्धा होने से उन्हें संसारोच्छेदक सम्यक्त्व रत्न प्राप्त हो ।।१३४|| आचार्य श्री कहते हैं १ सत्यं सत्सङ्गतिर्लोके फलत्युच्चमहत्फलम् । कल्पवल्लीव सत्सौख्यं परमानन्ददायिनी ॥१३५।। अन्वयार्थ- (सत्यम्) सत्य ही है (लोके) संसार में (परमानन्द) उत्कृष्ट आनन्द (दायिनी) देनेवाली (सत्सङ्गति) सज्जनों को सङ्गति (कल्पवल्ली) कल्पलता (ब) समान (उच्चः) उन्नभ (सत्सौख्यम्) यथार्थ सुख रूप (महत) महान् (फलम् ) फलों को (फलति) देती है-फलती है। भावार्थ · संसार में सङ्गति का विशेष महत्त्व है। क्योंकि मनुष्य स्वभाव से दूसरी का अनुकरण करना चाहता है । सज्जनों को सङ्गति से उसमें सज्जनता का संचार होता है। मानवता पाती है । मानवीय गुणों का प्रकाश, विकास और वर्द्धन होता है । इसीलिए यहाँ परभोपकारी आचार्य श्री ने सत्सङ्गति को "कल्पलता" की उपमा दी है। जिस प्रकार कल्पवल्ली नानाविध इच्छित फलों को प्रदान करती है उसी प्रकार सत्सङ्गति, अलौकिक, अनुपम, अतुलनीय अप्रत्याशित गुणगण, सुख साधनों को प्रदान करती है । नाना सुख वितरण करती है । नीतिकार कहते हैं “सङ्गति कोज साधु को हरे और को व्याधि ।" साधू की सङ्गति प्राधि-व्याधियों का नाश करता है। यथा सम्यग्दृष्टि महासती मैनारानी की सङ्गति ने न केवल अपने पति श्रीपाल की ही व्याधि का नाश किया अपित उसके सहयोगी सभी ७०० सुभटों का भी भयङ्कर रोग जडमूल से नष्ट कर दिया । वस्तुतः धर्म और धर्मात्मा ही सच्चे मित्र और सज्जन हैं ।। १३५।। तदा तौ दम्पती हृष्टौ सिद्धचक्रप्रभावतः । रेजाते शक पौलोभ्यो कीडन्त्यौ वा महीतले ।।१३६।। अन्वयार्थ --(तदा) तब (सिद्धचक्रप्रभावत:) सिद्धचक्र के माहात्म्य गे (तो) वे दोनों (दम्पत्ती) पति-पत्नी (महीतले भु-मण्डल पर (क्रीइन्त्यौ) क्रीडा ग्रामोद-प्रमोद करते हुए (वा) मानों (शा) इन्द्र (पौलोभ्या) इन्द्राणी हों उस प्रकार (रेजाते) सुशोभित हुए। भावार्थ-सिद्धचक्रपुजा के प्रभाव से महाराज श्रीपाल की कुष्ठव्याधि नष्ट हो गई। इससे उन दोनों पति-पत्नी को परम सन्तोष हा । आनन्द हुप्रा । वे हर्षोन्मत भूलोक में इन्द्र और शचीदेवी के समान विविध क्रीडाएँ करते हुए शोभित हुए ॥१३६।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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