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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१६३ अन्वयार्थ- (सिद्धचक्रप्रसादेन) सिद्धचक्र भक्ति के प्रसाद से (त्रिजगद् ) तीनलोक की (वनिताबन्द) नारी समूह के (मनोमाणिक्यमोहनः) मन रूपी माणिक्यरत्न को मोहने वाला, (जगद्व्याप्य) संसार व्यापी (यशोधनः) यशरूपी धन (प्राप्तः) प्राप्त किया । भावार्थ इतना ही नहीं । जन्म का जितना सौन्दर्य था उससे भी अधिक रूप लावण्य सम्पत्ति प्राप्त हुयी । श्रीसिद्धिचक्र के प्रसाद से रूप, सौभाग्य सम्पदा अतुलनीय हो गई । जाादेव सण आकार हो गया ! गरेर की कान्-ि से चन्द्र की शोभा को भी जीत लिया। चन्द्र जिस प्रकार सबका मन प्राङ्गादित करता है उसी प्रकार उसका शरीर सौन्दर्य तीनों लोकों की सुन्दरियों के मनमाणिक्य को मोहने वाला प्रकट हुा । इतना ही नहीं सौम्य ग्राकृति के साथ यश भी जगतव्यापी हुआ । सिद्धचत्र महिमा, पातिव्रत धर्म प्रताप और जिनशासन महात्म्य की यशोपताका तीनों लोकों में फहराने लगी । अर्थात् सुरासर नर विद्याधर लोक में सर्वत्र इस सिद्धचक्र की महिमा और मैनासुन्दरी का श्रद्धाप्रताप व्याप्त हो गया । ॥१३१.१३२।। तथा तया तदा सर्वे ते सप्तशतकुष्ठिनः । तेन गन्धाम्बुना शीन विहिता ब्याधिजिताः ॥१३३॥ अन्वयार्थ-(तथा ) उसी प्रकार (तया) मदनसुन्दरी द्वारा (तदा) तब (ते) वे (सर्व) सभी (सप्तशत) सातसो (कुष्ठिनः) कुष्ठी भी (तेन) उस (गन्धाम्बुना) गन्धोदक सिंचन से (शीघ्रम् ) शीघ्र ही (व्याधि) रोग (वजिता) रहित (विहिता) किये गये। भावार्थ:-दयाद्रचित्ता, जिनागमपरायणा उस मैनासुन्दरी ने जिस प्रकार अपने पतिदेव की सुश्रुषा को उसी प्रकार उमके माथी ७०० कुष्ठियों की भी परिचर्या की । धर्मात्मा स्वभावतः परोपकार निरत रहते हैं । प्रतिदिन अभिषेक के गन्धोदक को उन सभी कुष्ठियों पर छिडकती । अतः सभी उस असाध्यरोग से मुक्त हो गये । निस्वार्थसेवी प्राणीमात्र के प्रति समभावी होते हैं ।।१३३।। सिद्धचक्रस्य पूजायाः फलं प्रत्यक्षतामिताम् । तेऽपि संवीक्ष्य जैनेन्द्र धर्मेलग्नाः स्वभावतः ॥१३४॥ अन्वयार्थ---(ते) वे ७०० कुष्ठी (अपि) भी (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (अमिताम्) अमित (पूजाया:) पूजा के (फलम् ) फल को (प्रत्यक्षतः) प्रत्यक्ष (संवीक्ष्य) सम्यक् प्रकार देखकर (जैनधर्मे) जैनधर्म में (स्वभावतः) स्वभाव से (लग्ना:) लग गये अर्थात् स्वीकार किया। भावार्थ-सिद्धचक्र पूजा के महात्म्य को प्रत्यक्ष देखकर अन्य ७०० कुष्ठी भी जिनधर्म में दृढ़ श्रद्धालु हो गये । अन्य को प्राप्त फल को देखकर श्रद्धाभक्ति जाग्रत होती है। यदि स्वयं को ही फलं मिले तो फलदाता के प्रति भक्ति क्यों न होगी ? अवश्य ही होगी। वे सभी
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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