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________________ ३४२] [श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्त्येष्टी आदि समस्त क्रिया सम्पन्न कर यान पात्रों को संभाला। वर्वर राजाओं को श्रीपाल ने युद्ध में परास्त किया था, उन्हें बन्धनबद्ध कर पुनः प्राधीन कर छोड़ दिया। प्राणदान पाकर उन्होंने भक्तिभाव से प्रसन्न हो श्रीपाल को सात जहाज धन-धान्य रत्नादि से भरे भेंट किये थे। यह कथा पहले पा चुकी है। पाठक गण विचार करें कि श्रीपाल कितना न्यायवन्त, उदार, सदाचारी व विशाल हृदय बाला है । इस समय सेठ धवल के ५०० जहाज इसके हाथों में हैं। परन्तु उसने उस अटूट धन को ओर दृष्टि भी नहीं डाली । अपने ही सात जहाजों को स्वीकार किया। महान संतोषी श्रीपाल के इस आचरण से आज के धनकुवेर जो अपने धन की बुद्धि के लिए अनधिकार चेष्टा करते हैं शिक्षा ग्रहण करें। अपने लोलुपी. मन की शूद्धि कर पाप के बाप लोभ का त्याग करें । अस्तु धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि श्रावक श्रीपाल ने शेष समस्त पाच सा जहाज धवल सेठ के भगुकच्छ नाम के पत्तन को अविलम्ब भेज दिये। उसके परिवार को किसी प्रकार कष्ट न हो तथा साथियों का मार्ग सुखपूर्वक तय हो इत्यादि प्रबन्ध भी राजा द्वारा करा दिया। स्वयं भी राजा धनपाल से प्राप्त राज्य एवं देशादि को लेकर आनन्द से रहने लगे। अपने विशिष्ट पण्य से स्वयमेव प्राप्त भोग भोगने लगा। "संतोषं परमं सुखम ।" ॥२०० २०१२०२।। सती मदनमजूषा गुणमाला गुणोज्वला । द्वाभ्यांसार प्रियाभ्यां च, संयुतो गुणमण्डितः ॥२०३॥ भुञ्जन्मोगान्मनोऽभीष्टान् विपुण्यजन दुर्लभान् । संस्थितः श्री जिनाधीशधर्मकर्मणि तत्परः ।।२०४।। अन्वयार्थ-(श्री जिनाधीशधर्मकर्मणि) उभय लक्ष्मीनायक श्री जिनेन्द्र भगवान के धर्म कार्यों में (तत्परः) सन्नद्ध वह श्रीपाल (गुणमण्डितः) श्रेष्ठ गुणों से अलङ्कृत (गुणोज्ज्वला) शुभगुणों से मण्डिता (सती) साध्वी (मदनमञ्जूषा) मदनमञ्जूषी (गुरणमाला) गुणमाला नाम की (द्वाभ्याम ) दोनों (प्रियाम्याम ) पत्नियों के साथ (संयुतो) सहित (अभीष्टान् ) इच्छित (च) और (विपुण्यजन) पापी जीवों को (दुर्लभान ) कठिन (भोगान ) भोगों को (भुञ्जन ) भोगता हुआ (संस्थितः) स्थित हुआ रहने लगा। भाषार्थ-तत्ववित् सुख दुःख में समान रूप से प्रवर्तन करते हैं । न सुख में फूलते हैं न दुःख में घबराते हैं । किन्तु हर हालत में अपने धर्मकार्यों में सावधान रहते हुए कर्त्तव्य में तत्पर रहते हैं। श्रीपाल भी अब अपनी दोनों प्रियाओं मदनमञ्जूषा व गुणमाला के साथ सारभूत, पुण्यपाक से प्राप्त पञ्चेन्द्रिय विषयों को धर्म पुरुषार्थ को लक्ष्य बना भोगने लगे । पुण्यवान को बिना प्रयास ही इष्ट भोगों की उपलब्धि हो जाती है। पुण्यहीन जी तोड प्रयास कर भी उन्हें नहीं पा सकते । परन्तु विवेकी जन सुलभता से प्राप्त उन भोगों में प्रासक्त नहीं
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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