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________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] होते-विमूढ नहीं होते, अपितु औषधि के समान उनका सेवन पूर्ण उपेक्षा भाव से करते हैं । गृद्धता पूर्वक भोगों का सेवन दुर्गति को निमन्त्रण है । अत: ज्ञानी इस भय से मुक्त नहीं होता अपितु सावधान होकर इस से बचने का प्रयत्न करते हुए धर्म का सेवन करते हार भोगता है । ।१२०३ २०४।। कोटिभटो गुणज्ञश्च कृपालुश्च विशेषतः । स श्रीपालः सुखं तस्थौ यावतावत्कथान्तरम् ॥२०५॥ नित्यं श्रीजिनसिद्ध पूजनपरस्सत्पात्रदानेरतो । नित्यं शास्त्रविनोद रञ्जितमतिदिग्व्याप्तकीर्तिद्युतिः नित्यं सारपरोपकारनिरतः श्रीपाल नामा नपः । स्तत्रोच्चैप्रेमदाद्वय प्रमुदितो भुञ्जन्सुखं संस्थितः ।।२०६।। अन्वयार्थ-(कोटिभट:) कोटीभट, (गुणज्ञः ) गुणों का ज्ञाता (विशेषतः) विशेष रूप से (कृपालुः) दयातत्परा (च) और (दयालुः) परोपकारी (सः) वह (श्रीपाल:) श्रीपाल (यावत ) जबकि (सुखम् ) सुख से (तस्थी) वहाँ था (तावत ) तय हो (कथातरम् ) अन्य कथा चली (श्रीपालनामा नृपः) थं पाल नामका राजा (नित्यम् ) प्रतिदिन (श्रीजिनसिद्ध पुजन परः) श्री जिनेन्द्र भगवान और सिद्धों की पूजा में लपर (सत्पात्र) उत्तमादि पात्रों को (दाने रतः) दान देने में नीन (नित्यम् ) प्रतिदिन (शास्त्रविनोद) शास्त्राध्ययन (विनोदरञ्जित) विनोद में मग्न (मति :) बुद्धि (दिग्व्याप्तकोतिः) दिशाओं में व्याप्त कीति (युतिः) कान्ति युत (नित्यम् ) सतत (परोपकार) दूसरे की भलाई रूप (सार) तत्त्व (निरतः) लीन (प्रमदाद्वय ) पत्नियों से (प्रमुदितः) आनन्दित (उच्चैः) उत्तम (सुखम् ) सुख (भुजन) भोगता हुन। (तत्र) वहीं (संस्थितः) रहने लगा। भावार्थ -भूपाल श्रोपाल वहाँ दलवर्तन पतन में रहने लगा । अपनी दोनों रमिणियों सहित वह नित्य श्री जिनेन्द्र भगवान एवं सिद्ध परमेष्ठी को पूमा में तत्पर रहता था । प्रतिदिन उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को यथायोग्य चारों प्रकार का दान देने में हर्षित होता था। भक्ति श्रद्धा से साधु सन्तों की सेना, वैयावति करता था। प्रति दिवस स्वाध्याय, तत्त्वचिन्तन धर्मकथादि ही उसके बिनोद के साधन थे । परोपकार दो उसका प्राण ही था । प्राणीमात्र का रक्षण करना अपना कर्तव्य समझता था। ये ही उसकी वृद्धि के व्यायाम थे। यूगल कामिनियों सहित प्रानन्द से विषय सखों को भी भोगता था, परन्तु उन्हें सतत उपेक्षा भाव से ही देखता था, विरस ही जानता था। इस प्रकार नारों पुरुषार्थों को समान रोति से सेवन करते हुए वहाँ
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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