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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद]
[३४१ मायार्थ आचार्य खेद प्रकट करते हैं कि संसार में कामदेव का मोहन मन्त्र सर्वत्र व्याप्त है । हरिहर, ब्रह्मा आदि को भी इसने परास्त कर दिया। यह महा ठग है बडे-बडे ऋषि, मुनि, त्यागी भी इसके चंगुल में फंस जाते हैं। इस काम को धिक्कार है। परस्त्री लम्पटी का तो कहना हो क्या है ये तो महाधिक्कार के पात्र हैं। परस्त्री सेवन के लोलुपियों को धिक्कार हैं। परनारी सेवक नियम से अधोगति के हो पात्र होते हैं। इसलिए भव्यजीवों को परस्त्री संभोग का सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। जिससे स्वर्गादि सुख और वैभव प्राप्त होता है पुनः क्रम से मोक्षसुख की भी प्राप्ति होती हैं । मुक्ति प्राप्त जीव अनन्तकाल तक अनन्त सुख में निमग्न रहता है। जो जीव शुद्ध रूप परिणति करते हैं वे स्वभाव से करोड़ों विघ्नों का नाश कर देते हैं अर्थात् उनके करोड़ों संकट दूर हो जाते हैं । संसार में अनेकों सुख-शान्ति उन्हें प्राप्त होती है । उभय लोक में अपने आप ही नाना शुभफल प्राप्त हो जाते हैं । १६७ से १६६ ।
स श्रीपालस्तदा धीमान् तद् पदित्वा महीपतिम् । स्वकीयं धनमादाय सप्त पोतादिकं शुभम् ॥२००।। सांगि घाम पानामि तदा तालक सुनीतिवित् । प्राहिणोद्धगुकच्छाख्य पत्तनं धामिकाग्रणीः ॥२०१॥ स्वयं स्वपुण्यपाकेन तत्र श्रीवलवर्तने । राज्ञा प्रदत्त देशादि राज्यं प्रापप्रमोदतः ॥२०२॥
अन्वयार्थ----(तदा) घवल सेठ का हार्ट फेल होने पर (सः) वह (धीमान् ) बुद्धिमान श्रोपालः) श्रीपाल (महीपतिम् ) राजा को (तद्) वह वृत्तान्त (गदित्वा) विदित कर (शुभम ) शोभनीय (स्वकीयम् ) अपने (सप्त) सात (पोतादिकम् ) यान पात्रों भरे (धनम् ) धन को (आदाय) लेकर (तदा) तब (सुनीतिवित) सम्यक् नीतिज्ञ (धार्मिकाग्रणी:) धर्मामाओं में अग्र श्रेष्ठ उस श्रीपाल ने (तस्य) धवल सेठ के (सर्बाणि) सम्पूर्ण (यानपात्राणि) जहाजों को (भृगुकच्छाख्य) भृगुकच्छ नामक (पत्तनम्) नगर को (प्राणिोत ) भिजवा दिये (स्वयम् ) अपने स्वयं श्रीपाल (तत्र) वहीं (श्रीदलवर्तने) दलवर्तन द्वीप में (स्वपुण्यपाकेन) अपने पुण्योदय से (प्रमोदतः) आनन्द से (राज्ञा) राजा द्वारा (प्रदत्त) दिये गये (देशादि) देशों व (राज्यम् ) राज्य को (प्राप) प्राप्त किया।
भावार्थ - धवल सेठ श्रीपाल की निर्मल, पवित्र विनय भक्ति से पानी-पानी हो गया । उसका हृदय इस सज्जनता का फल कैसे चखता ? शेरनी के दूध को सुवर्णपात्र ही धारण करने में समर्थ होता है । अत: उसका हृदय फेल हो गया । मरण को वरण कर सदा के लिए मुह छिपा लिया । श्रीपाल तन्त्रवित था । अत: समस्त घटना राजा को ज्ञात करा दो। उसको