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भोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद] गुणवान सातसी प्रमाण बॉडीगाई अङ्गरक्षक सेवक हैं । तथा प्रजनामक विशाल, सुरम्य देश है उसमें गतान्तमनोहर, पर्म को खान स्वरूपा 'चम्पापुरी' नामकी राजधानी है। इस समय वहां मेरा त्राचा ग्रानन्द से राज्यशासन सरचालन कर रहा है। कारणवश मुझे राज्यच्युत होना पड़ा और अनेक शरीरजन्य दुःखद वेदना सहनी पडी। मेरी प्रिया मदनसुन्दरी के सत्प्रयत्न और तीन पुण्य से यह मुझे, शुभावसर प्राप्त हुआ है । इस प्रकार आद्योपान्त सम्पूर्ण अपनी जीवन गाथा सुनाई । आनन्द पूर्वक कथित वृत्तान्त को जानकर मदन मञ्जुषा का हर्ष और भी अधिक हो गया ॥१६४-१६५।।
साऽपि भर्तस्समाफर्य सर्बसम्बन्धमुत्तमम् ।
सन्तोषमधिकंप्राप सत्यं भर्ता गुणाकरः ॥१६६॥ अन्वयार्थ--(सा) वह मदनमञ्जूषा (अपि) भी (मत्त :) पतिदेव के (उत्तमम् ) उत्तम (सर्वसम्बन्धम् ) सम्पूर्ण सम्बन्ध को (समांकर्ण्य) सम्यक् प्रकार ज्ञात कर-सुनकर (अधिकम् ) अत्यन्त (सन्तोषम् ) सन्तोष को (प्राप) प्राप्त किया क्योंकि (सत्यम् ) सचमुच हो मेरा (भर्ता) पतिदेव (गुणाकर:) गुणसमुद्र हैं ।
भावार्थ-मदनञ्जूषा ने अपने पतिदेव का यथार्थ परिचय श्रवण किया । उसे सुनकर तथा यथार्थ कोटिभट जानकर उसे परम सन्तोष हुअा । ठीक ही पातिव्रत धर्म रक्षिका नारियां उच्च, कुलीन, गुणवन्त सज्जातीय वर को प्राप्त कर क्यों ना प्रसन्न होती ? अर्थात् होती ही हैं ॥१६॥
इति विषद् धिभूत्या सार कन्यावि रत्नम् । परमगुरण समुद्रः ध्यादिपालो नरेन्द्रः प्रचुर गुणमुदारं प्राप्तवान् शर्मसारम,
स जयतु जिनदेवो यस्य धर्म प्रसादत् ।।१६७।। अन्वयार्थ--(इति) इस प्रकार (यस्य) जिसके (धर्मप्रसादात) धर्मप्रसाद से (परमगुणसमुद्रः) श्रेष्ठगुणों का सागर (श्यादिपालः) श्रीपाल (नरेन्द्रः) भूपति ने (शर्मसारम् ) उत्तमशान्ति (प्रचुरगुणम्) अनेवागुण अलङकृत (उदारम्) उदार तथा (विशद् ) विशाल (विभूत्या) विभूति सहित (सारकन्यारत्नम्) सारभूतकन्याख्या रत्न को (प्राप्तवान्) प्राप्त किया (सः) वह (जनदेवः) जिनेन्द्र भगवान (जयतु) जयलील होवें।
मावार्थ--इस परिच्छेद को पूर्ण करते हुए श्री १०८ आचार्य परमेष्ठी सकलकीति जो महाराज सारभूत तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं। साथ ही उस सुग्त्र-शान्ति के कारणभूत थी वीतरागजिनेश्वर प्रभ को आशीर्वादात्मक ढंग से स्तुति भी कर रहे हैं। जिनेन्द्रोक्त धर्म ही संसार में सार है । दुःखों का संहारक, मुखों का विधायक और कल्याण का दायक है।