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________________ [थोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद पोतान् प्रज्यालयामास देवी ज्वालादिमालिनी। साधूनां सर्वदा सत्यं पीडा प्राणापहारिणी ॥१०२॥ तथा तस्य मुखे क्षिप्त्वा-शुचि कोपेन ते जगुः । पुनः पापिन् करोषीत्थं पापकर्म वव त्वकम् ।।१०३॥ एवं तैः पीडितो गाढ़ स पापो भयकम्पितः । पतित्वा पादयोस्तस्यास्त्वं मे पूज्या सती ध्रुवम् ।।१०४।। सर्व क्षमस्व मे देनि मनपरा पापिला वनम् । शीघ्र तां साधु संस्तुत्य सुप्रसन्नाञ्चकार सः ॥१०५।। सत्यं सतां मतिः पूर्व दुधिया पीडिते सति । यथा चान्धो न जानाति ललाटे ताडनं बिना ॥१०६॥ अन्वयार्थ (सत्यम्) निश्चय ही तुम (त्वम् ) तुम (घोरे) भयङ्कर (नरके) नरक में (गन्तुम ) जानेका (कामः) इच्छक हो (तु) इसी कारण ऐसा (जरूपसि) प्रलाप करते हो (याहि याहि) जाग्रो-जाग्रो (कुधी:) हे दुबुद्धि (अकृत्यम्) कुकर्म है (अतः) इसलिए (वक्त्रम्) मुख (लात्वा) लेकर (कुतः) कहीं हो (याहि) जाग्रा हटो (जगत्सारम्) विश्व का सारभूत (स्वर्गमोदकसाधनम्) स्वर्ग और मोक्ष का एक मात्र साधन (शोलम् ) शीलव्रत को (अहं) मैं (स्वप्नेऽपि) स्वप्न में भो (न) नहीं (त्यजामि) छोड़ने वाली हैं (पुनः) फिर (बहुजल्पनैः) अधिक बोलने से (किम्) क्या ? (मया) मेरे द्वारा (नूनम् ) निश्चय ही (स्वभतु दर्शनम् ) अपने पति का दर्शन (कृत्वा) करके (वा) अथवा (प्रामकरम् ) सुखदायो (जिनोदितम् ) जिन भगवान कथित (तपः) तप (गृहीत्वा) ग्रहण कर हो (पानाशनम् ) भोजन पान (कार्यम् ) किया जायेगा। (इत्यादिकम् ) इत्यादि (नियमम्) प्रतिज्ञा (कृत्वा। करके (परमेष्ठिन:) पञ्चपरमेष्ठा का (स्मरन्ती) ध्यान करती हुयी (याबद्) जैसे ही तत्र वहाँ (सती) वह प्रोलवता (प्रास्ते) स्थिर होती है कि (तावत्) उसी समय (शीलस्य) पातिव्रत धर्म के (पुण्यतः) पुण्यप्रभाव से, (निजासन) अपने आसन वे (प्रकम्पेन) कम्पायमान होने से (जिनशासनदेवताः) जिनशासन रक्षक देवगण (च) और (व्यनारा:) व्यन्तर देव (महाकोपेन) भोपण क्रोध से (समागत्य) आकर (दारुणा:) भयंकर (तीव्र:) तेज (या) मानों (प्रल बोद्भवैः) प्रलयकाल में उत्पन्न (महावानशतैः) संकड़ों महा वायूओं से (सागरे) समुद्र में (कल्लोलः) लहरों द्वारा (शीघ्रम् ) शीघ्र ही (यानपात्रारिण) जहाजों को (चालवामामः) कम्पायमान कर दिया (बा) उस समय मानों (तस्थ) उस {पापिनः) पापी धवल का (गाइम्) अत्यन्त कुकर्मरूप (पापम् ) पाप (घूमन्ते) धुआधार अन्धकारमय चिक्रिरे) हो गया ! (च) और (पद्मावती) पद्मावती देवी ने (पेटाद्य :) चांटे, घसा लातों से (तम्ख ) उसके मुखपर (भृशम् ) बार-बार (अमारयत्) मारा (खलम्) दुर्जन (धष्टिनम्)
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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