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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
अन्वयार्थ—(प्रमुदिता) प्रमोद से भरी हुई (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (जिनोदितम् ) जिनागम में कथित (पापसंतापनाशनं) पापरूपी संतापदाह का निवारण करने वाले (शीतलं) शीतल (चन्दनकाश्मीरं) काश्मीरी चन्दन को (समुद्धृत्य) लेकर ।
(उच्चैः) हर्षोत्कर्ष से सहित (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (पुण्यांकुरवत्) पुण्यरूपी वृक्ष को उत्पत्ति में अंकुर के समान (उत्तमान्) श्रेष्ठ-अखण्ड (शुभाक्षतान्) शुभ्रवर्ण वाले सुन्दर सुगंधित अक्षतों को और (काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (विशेषतः) विशेष उल्लास के साथ (सुगन्धानि) उत्तम सुगन्धवाले (नानाप्रसूनानि) नानाविध पुष्पों को लेकर ।
(काश्चित्) कुछ स्त्रियाँ (चरुकरैः) उत्तम नंबैद्यों से (दीपः धूपैः) उत्तम दीप और धूपों से (सार फलोत्कर:) सारभूत उत्तमफलों से (सार्द्ध) सहित (प्रचेलुः) चलीं।
भावार्थ-परम उल्लास से भरी सौभाग्यवती नारियाँ उत्तम अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप. धूप, फलादि लेकर श्री जिनेन्द्रप्रभु की पूजा के लिये चल पड़ी। जिनेन्द्र प्रभु के चरणों में अर्पित किया गया पुष्प, नैवेद्य, दीप, धुप कभी भी पाप बन्ध का कारण नहीं हो सकता । अपितु अभी कुछ लोग ऐसा कहने लगे हैं कि पुष्प चढ़ाने में दोष है, दीप, धूप चढ़ाने से भी हिसा होती है अतः नहीं चढ़ाना चाहिये, फल वनस्पतिकाय है, सचित्त है अतः अप्रासुक है अतः फल नहीं चढ़ाना चाहिये ? किन्तु किसी भी श्रावकाचार ग्रन्थ में ऐसा नहीं लिखा है । अष्ट द्रव्यों में प्रत्येक द्रव्यों के चढ़ाने का विधान है और उनका विशेष महत्व भी दर्शाया है। वसुन्दि श्रावकाचार में पुष्पपूजा का फल बताते हुए प्राचार्य लिखते हैं
___ कुसुमेहि कुसेसयवयण तरूणोजणणपणकुसुमवरमाला।
बलएपच्चियदेहो जया कुसुमा उहो चेव ॥” .
अर्थ -पुष्यों से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाली, तरुणी जनों के नयनों से और पुष्पों को उत्तम मालानों के समूह से समचित देह वाला कामदेव होता है।
नैवेद्य पूजा का फल बताते हुए प्राचार्य लिखते हैं-..
"जायइ णिविज्जदाणेण सत्तिगोकंतितेय संपण्णो ।
लावण्णजल हिवेलातरङ्ग संपाविय सरीरो ।।"
अर्थ-नैवेद्य के चढ़ाने से मनुष्य शक्तिमान, कान्ति और तेज से सम्पन्न और सौन्दर्यरूपी समुद्र की वेला (तट) वतीं तरङ्गों से संप्लावित शरीर बाला अर्थात् अति सुन्दर होता है।
दीप पूजा का फल भी इस प्रकार बताया है
"दीवेहिं दीवियासेसजोवदन्वाइतच्च सम्भावो । सम्भावजणिय केवलपईवतेएण होइ परो।"