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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
प्रर्ण---जो प्रारम्भ कुटुम्ब पालन वा भोग के लिये किया जाता है वह पाप उपार्जन के लिये होता है, किन्तु दान पूजा आदि मे किया गया आरम्भ तो सदा धर्म का करने वाला होता है। हाँ उसमें हिंसा का लेश अवश्य माना है ।। १४४।। वह अल्प हिंसा समुद्र में डाले गये विष के एक कण के समान तुच्छ है, फल देने में असमर्थ होता है। ( विकाल पूजा का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं
पूर्वान्हे हरते पापं मध्यान्हे कुस्ते श्रियम् ।
ददाति मोक्षं सन्ध्यायां जिनपूजा निरन्तरम् ।।१८१॥ उ० श्रा. ॥ ) पूर्वाह्नकाल–प्रात:काल की गई जिन पूजा पाप को हरती है । मध्याह्न में की गई जिनपूजा अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी को प्रदान करती है और सायंकाल की जिन पूजा मोक्ष को प्रदान करती है।
ऐसी महत्वपूर्ण जिनपूजा वन्दना के लिये जाते हुए श्रेरिगक महाराज अपनी प्रजाजनों के साथ, देवेन्द्र के समान शोभित थे ।
नार्योऽपि निर्ययुः काश्चित् सुगन्धजलसंभृतम् ।
स्वर्णभृङ्गारमादाय मेरुशृङ्गमिवोन्नतम् ॥१०१॥
अन्वयार्थ--(मुगन्धजलसंभृतम्) सुगन्धित जल से भरे हुए (मेरुशृङ्गभिवोन्नतम्) मेरु की शिखर के समान उन्नत-उनुङ्ग (स्वर्णभङ्गार) सुवर्णमयी झारी-कलश को (आदाय) लेकर (काश्चित) कुछ (नार्योऽपि) और भी स्त्रियाँ (निर्यपु:) निकलीं।।
भावार्थ—जिस प्रकार सांसारिक विवाहादि माङ्गलिक कार्यों में मङ्गल कालशादि स्थापन किये जाते हैं उसी प्रकार यहाँ भी परम मङ्गलमय केवल-ज्ञान के धारी श्री महावीर प्रभु के दर्शन को जाते समय उत्तम प्रष्ट द्रव्यों के साथ-साथ माङ्गलिक सुवर्णमय दिव्य कलशों को सिर पर रखकर समुदाय के साथ स्त्रियां निकलीं ।
जल से भरे हुए वे कलश मानों यह कह रहे थे कि तुम भी श्री जिनेन्द्रदेव की पवित्र अमृतमय जिनवाणी रूपी गङ्गा के जल से अपने चित्त रूपी कलश को भर लो ।
काश्चिञ्चन्दनकाश्मीरं समुद्धत्य प्रमोदिता । शीत्तलं पापसंतापनाशनं घा जिनोदितम् ॥१०२॥ काश्चिच्छुभाक्षतान्युच्चैः पुण्यांकुरयदुत्तमान् । काश्चिमानाप्रसूनानि सुगन्धानि विशेषतः ॥१०३॥ काश्चिच्चरूस्करीपैधूपस्सारफलोत्करैः । सावं प्रचेलुरत्यन्तजिनभक्ति परायणाः ॥१०४।।