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[श्रीपाल चरित्र पथम परिच्छेद भव्यास्ते परमानन्दैदिव्यवस्त्रविरेजिरे ।
पूजा द्रव्यशतोपेताः पवित्रा या सुरोत्तमाः ॥१०॥
अन्वयार्थ - (पूजा द्रव्यशतोपेताः) सैकड़ों प्रकार के उत्तम पूजा द्रव्यों से सहित (सुरोत्तमाः वा) सुरो में उत्तम देवेन्द्रों के समान (परमानन्दै: दिव्य वस्त्रः) परमानन्द और दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत (पवित्रा) पवित्र-मन वचन और काय शुद्धि को धारण करने बाले (ते भव्या:) वे भव्य जन नर नारी (विरेजिरे) विशिष्ट शोभा को धारण कर रहे थे ।
भावार्थ-श्री १००८ महावीर प्रभु को बन्दना पूजा के लिय नाना प्रकार के एक एक द्रव्य सैकड़ों तरह के तैयार किये गये । अपनी अपनी शक्ति के अनुसार मुवर्ण चाँदो आदि श्रेष्ठ पात्रों में दिव्य, मनोज्ञ तथा अपने हाथ से तैयार किये गये शुद्ध प्रष्ट द्रव्य सजा लिये गये। चित्त में अतुल आनन्द को धारण करने वाले मुन्दर वस्त्र प्राभूषणों में सुसज्जित वे नर नारी ऐसे प्रतीत होते थे मानों स्वर्ग के देवी देवता ही धरा पर उतर आये हैं। सुरो में उत्तम देबेन्द्रों के समान उनका वैभव था । श्रेष्ठ अष्ट द्रव्यों को लेकर पूजा के लिये जाने वाले उन नर मारियों का समुल्लेख करते हुए आचार्य श्री ने यह संकेत-निर्देश किया है कि श्रावकों को खाली हाथ कभी भी देव शास्त्र गुरु के समक्ष नहीं जाना चाहिये । श्रेष्ठ, उत्तम, शुद्ध अष्ट द्रव्यों को
भक्तिपूर्वक चढ़ाकर भगवान का दर्शन करना चाहिये । । कहा भी है -"रिक्तहस्तं न पश्येत् राजानं देवतां गुरुम् ।।
नैमित्तिक विशेषेण फलेनफलमादिशेत् ।।" अर्थात राजा, गुरु और देव के समक्ष खाली हाथ कभी भी नहीं जाना चाहिये । निमित्त नैमित्तिक की विशेषता से तथा द्रव्य की विशेषता से फल में भी विशेषता आती है। जिसका दर्शन करने के लिये हम जाते हैं वह तो निमित्त विशेष है और श्रेष्ठ पवित्र द्रव्य, क्षेत्र काल भाव आदि सामग्री नैमित्तिक विशेष है। इन दोनों की विशेषता से फल में विशेषता मातो है। इत्यादि कथन से यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि श्रावकों को द्रव्य पूर्वक हो देव शास्त्र गुरु को पुजा करनी चाहिये । जो लोग यह कहते हैं कि अष्ट द्रव्य को तैयार करने में आरम्भजन्य हिंसा होती है अतः द्रव्य पूजा न करके भावपूजा करना ही श्रेष्ट है उनके निराकरण के लिये कहते हैं
त्रिकाल क्रियते भव्यः पुजापुण्य विधयिनी ।
या कृता पापसंघातं हत्याजन्मसजितम् ।।१८०।। (उमास्वामी श्रावकाचार) जो भव्य जीव मातिशय पुण्य की कारणभूत जिनपूजा को त्रिकाल-तीनों काल में करते हैं वे जन्म जन्मान्तर में अजित पापसंधात-पाप कुन्जर को उस जिनपूजा के द्वारा नष्ट कर देते हैं।
"तथा वुटुम्ब भोगार्थमारम्भः पापकृद् भवेत् । धर्मकृदानपुजादी हिंसालेशोमतः सदा ॥१४४१. उ० श्रा. ।।