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________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद | [ ३५७ नाम् ) दिगम्बर साधुओं की ( असेवक : ) सेवा नहीं करता (अर्हत्प्रणीतार्थम् ) सर्वेज़ प्रणीत अर्थ को ( अद्भुतः ) नहीं सुनता (सः) वह ( नरः ) मनुष्य ( पापपण्डितः ) पाप पण्डित है । I भावार्थ - तीसरी कन्या पौलोमी ने श्रीपाल के समक्ष अपनी समस्या उपस्थित की कि उनकी इष्टसिद्धि निश्चय ही दुःश्रुत है" उसका उत्तर महाराज कोटीभट श्रीपाल ने सर्वज्ञ प्रणीत युक्ति द्वारा यथार्थ उत्तर दिया । विलक्षण मति वाले को दुर्लभ भी कार्य सुलभ हो आते हैं । अतः श्रीपाल तत्क्षण बोले, सुनो विचक्षणे ! जिसने अपने जीवन में जन्म, मरण और वुढापे को नाश करने वाले ज्ञानामृत रूप वचनों को नहीं पिया। उसके इष्टसिद्ध होना शुरू ही है । अर्थात् इष्टसिद्धि हुई यह सुना ही नहीं गया ॥ ३ईको पार उत्तर निम्न प्रकार है- जो व्यक्ति दयारूपी धर्म को नहीं जानता, दिगम्बर निर्ग्रन्थ साधुओं की कभी सेवा भी नहीं की, तथा अर्हत प्रभु की दिव्यवाणी को भी जिसने कभी नहीं श्रवण किया वह मनुष्य पापियों में शिरोमणि है । पाप पण्डित है। मिथ्यात्व सर्वोपरि पाप है। सच्चे देव शास्त्र और गुरु की शरण से वहिर्भूत रहने वाला मिथ्यादृष्टि- पाप रूप ही है ।। ४५ । रण्णादेवी ततोऽवादीत् " नृसिहास्ते नरोत्तमाः ।" स्व बुद्धयेति महादक्षस्तस्याः प्रत्युत्तर जगौ ॥४६॥ शील होना नरा येऽत्र पशवस्ते नरा न च व्रताद्यै: निर्मलाः येsहो नृसिंहास्ते नरोत्तमाः ॥२४७॥ ( स भवेन्नर केसरीति च पाठ: ") सम्यक्त्वज्ञान चारित्र तपश्शीलादि निर्मलः । नारो वा यदि वा नारी स भवेन्नर केसरी ||४८ || अन्वयार्थ --- (तनः ) अनन्तर ( रण्णा देवी ) रण्णादेवी (अवादीत्) बोली " '(नृसिंहास्तेनरोत्तमाः ) " वे मनुष्य नरों में उत्तम हैं (इति) इस समस्या का ( महादक्षः) हे महा चतुर ( स्वया) अपनी तीक्ष्ण वृद्धि मे पूर्ति करो (तम्या : ) उसका ( प्रत्युत्तरम् ) उत्तर (जग) उसने दिया । ( यत्र ) यहाँ ( ये ) जो ( नराः) मनुष्य ( शीलहीना ) शीला चार विहीन है (ते) त्रे ( नरा) मनुष्य ( पशवः) पशु है (च) और ( नराः) मनुष्य (न) नहीं हैं (च) और ( ये ) जो मानव ( ताद्य : ) व्रतादि द्वारा ( निर्मलाः ) पवित्र हैं ( "ते नृसिहानरोत्तमा: ! " ) वे मानवों में सिह समान उत्तम जानों । अथवा ( स ) वह ( नरकेसरी भवत् ) मनुष्य में सिंह होता है। यह पाठान्तर है अर्थात् यह पाठ भी है। इसका उत्तर ( यदि ) अगर ( नरः ) मनुष्य पुरुष (वा) अथवा (नारी) नारी स्त्री ( सम्यक्त्व) सम्यग्दर्शन ( जान ) सम्यग्ज्ञान ( चारित्र) सम्यक् चारित्र ( तपश्शीलादिः) तप शील आदि से ( निर्मलः) पावन है ( स ) वह ( नरकेशरी, मनुष्य पर्याय में सिंह ( भवेत् ) होता है ।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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