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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद राजन् (त्वं शृण ) तुम सुनो (ध बम् ) निश्चय से (इदं सर्वम्) यह सब (मम) मुझे (सिद्धचक्रप्रसादेन सिद्धं) सिद्धचक प्राराधना के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।
भावार्य तदनन्तर श्रीपाल ने अपने श्वसुर प्रजापाल राजा को कहा कि हे राजन् ! सुनो, निश्चय से यह सम्पूर्ण वैभव मुझे श्री सिद्धचक्र अाराधना के प्रभाव से प्राप्त हुआ है । ।।१७१।।
तबाकण्यं प्रभुस्सोऽपि प्रजापालो महोत्सवः । दाननिर्महाध्यानावित्रशतसंभवैः ॥१७२।। पुरी प्रवेशयामास विलसद् रत्नतोरणम् ।
श्रीपाल सबलं शान्तः पुरं नृत्यादि संभृतः ।।१७३॥ अन्वयार्थ-- (तद् आकयं) उसे सुनकर (शान्तिः सो प्रभुः प्रजापालो अपि) शान्त चित्त वाले उस प्रजापाल ने भी (महोत्सवैः) बड़े उत्सव के साथ (दान: मानैः) दान सम्मान पूर्वक (वादित्रशतसंभव:) सैकड़ों प्रकार के वादित्रों से उत्पन्न (महाध्वान:) महाध्वनि के साथ (नृत्यादिसंभवः) नृत्यादि कार्यक्रमों के साथ (सवलं) सैन्यबल के साथ (विलसद्रत्नतोरणम्) शोभायमान रनमयी तोर बार वाले पुरी दुरी श्रीपाल प्रवेशयामास ) श्रोपाल को प्रवेश कराया।
भावार्थ--श्रीपाल से उस वचन को सुनकर प्रजापाल राजा बहुत सन्तुष्ट हुग्रा । अहंकार भाव के मिट जाने से शान्तचित्त हुआ वह मन में प्रति आनन्दित हुआ। वह बड़े
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